Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
रहने और पास में कुछ भी न रखने पर भी उनका ममत्वभाव उन वस्तुओं पर से छूटा नहीं, न उन्होंने उक्त वस्तुओं को परिग्रह समझ कर छोड़ा है। इसीलिये शास्त्रकार ने कहा है.--'किसामवि'- इस शब्द का तात्पर्य यह है कि पदार्थ चाहे मात्रा में अल्प हो, अथवा तुच्छ हो । तिनके या भुस्से का कोई अधिक मूल्य नहीं है, जंगल में जो यों ही घास पड़ी रहती है. किन्तु उसी घास-फूस पर ममता हो जाने के कारण या ममत्व न छोड़ने के कारण वह परिग्रह बन जाती है। अथवा मूर्छा की तरह इच्छा को भी परिग्रह कहते हैं, यह बात किसामवि' इस पद के द्वारा द्वारा सूचित की है। इसका एक रूप 'कसमपि' भी होता है, जिसका अर्थ होता है-परिग्रह बुद्धि से किसी वस्तु को ग्रहण करने के लिये उसके पास जाने का जीव का परिणाम होना', यह सब परिग्रह रखना है। परिग्रह के दो रूप
परिग्रह के पूर्वोक्त लक्षण के अनुसार यह बात स्पष्ट परिलक्षित होती है कि परिग्रह सिर्फ सचित्त-अचित्त पदार्थ ही नहीं है, पदार्थ सामने विद्यमान न हो या दूर हो, तो भी उस पदार्थ की चाह, तृष्णा या लालसा भी परिग्रह बन जाती है। अथवा क्रोध, मान, माया (कपट), लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, कामवासना, यश-प्रतिष्ठा, विपरीत मान्यता या श्रद्धा आदि की पकड़ भी आसक्तिपूर्वक होने से वे भी परिग्रह बन जाते हैं। क्योंकि परिग्रह का मुख्य सम्बन्ध ममता, मूर्छा, इच्छा, तृष्णा, गृद्धि, आसक्ति, लालसा आदि भावों से है, वस्तु के विद्यमान, व्यक्त या अव्यक्त से इतना सम्बन्ध नहीं । पहले मन में इच्छा या लालसा जन्म लेती है, उसी को सक्रिय रूप से परिणत करने के लिये जीव वस्तु को ग्रहण करता है। इस दृष्टि से शास्त्रकारों ने परिग्रह के बाह्य और आभ्यन्तर ये दो भेद किये हैं। बाह्य परिग्रह के भी दो भेद हैं, जिनका उल्लेख 'चित्तमंतमचित्त' पदों से शास्त्रकार ने किया है । वे हैं सचेतन परिग्रह और अचेतन (जड़) परिग्रह । सचेतन परिग्रह में मनुष्य, स्त्री, पशु, पक्षी (द्विपद और चतुष्पद) तथा वृक्ष, पृथ्वी, वनस्पति, फल, धान्य आदि समस्त प्राणधारी सजीव पदार्थों का समावेश हो जाता है। अचेतन (जड़) परिग्रह में वे समस्त पदार्य आ जाते हैं, जिनमें प्राण (जीव) नहीं होते हैं, जो निर्जीव हैं --जैसे क्षेत्र, वस्तु, रजत, स्वर्ण, माणिक्य, वस्त्र, पात्र, सिक्के, नोट, मकान, दुकान आदि । कुछ आचार्यों ने बाह्य परिग्रह के क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद और कुप्य, ये ह भेद बताए हैं । भगवती सूत्र में गणधर श्री गौतम स्वामी के प्रश्न करने पर भगवान ने कर्म, शरीर और
१. कसनं कसः परिग्रह बुद्ध या जीवस्य गमनपरिणामः इति ।
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