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औषध परीक्षा
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औषध प्रमाण
साम, निराम, मृदु, मध्य और तीरणादि से उपयोग किया जाता है ? इसके सिवाय और भी औषध्यादिक का प्रयोग व्याधि अवस्था का काल
औषध सम्बन्धी जो-जो उचित परामर्श एवं विचार है, जैसे-"लंघनं स्वेदनकालो यवागूस्तिककोरसः। हों, उन्हें सम्यक जानकर और समान न्यूनादि मलानांपाचनानिस्युर्यथावस्थंक्रमेणवा ॥ ज्वरे पेयाः गुणों की समालोचना करते हये औषध की परीक्षा कषायाश्च सर्पिः क्षीरं विरेचनम्। अहं वा षडह
करनी चाहिये । च० सं०।। युज्याद्वीच्य दोषवलाबलम् ॥ मृदुज्वरोलघुर्देहः | औषध-प्रमाण-संज्ञा पु[सं० की ]औषध मान। दवा चलिताश्च मलादयः।। अचिरज्वरितस्यापि भेषजं | की माप-तौल । Weight and measures योजयेत्तदा" । वा० सू० १ अ०।
प्राचीन काल में अनेक प्रकार के मान प्रचलित
थे; परन्तु सम्प्रति शास्त्रों में दो ही प्रकार की तौलों सुश्रुताचार्य के अनुसार उक्त दस काल इस
का अधिक व्यवहार पाया जाता है। (१) मागध प्रकार हैं (१) निर्भक, (२) प्राग्भवः, (३)
और दूसरा कालिङ्ग (सुश्रुतोक्न) मान । अधोभन, (४) मध्येभन, (५) अंतराभक्त,
_ यों तो औषध-निर्माण में चाहे जिस मान का (६) साभन, (७) सामुद्ग, (८) मुहुमुहु
व्यवहार क्यों न किया जाय,औषध के गुणों में कोई (१) प्रसि और (१०) ग्रासान्तर ।
अन्तर नहीं पा सकता, परन्तु चरक के प्रयोगों में इनमें से निराहार औषध ली जानेवाली अर्थात्
चरकीय और सुश्रु त के प्रयोगों में सुश्रुत के मान जिसमें केवल औषध ही ली जाती है निर्भक,
का व्यवहार करना अधिक उत्तम है। अन्य ग्रन्थों खाने से पूर्व प्राग्भक, खाने के उपरांत
के प्रयोगों में चरकीय परिभाषा का व्यवहार विशेष अधोभन, खाने के बीच मध्यभक्क, दोनों समय
सुविधाजनक प्रतीत होता है। इसलिये यहाँ पर खाने के बीच अन्तराभक्क, खाने में मिलाकर
पर उक्त मानों का परिचय देना उचित जान सभन, खाने के पहले और पीछे सामुद्ग, बे खाये
पड़ता है। या खाये बारबार मुहुमुहुर॑सि और कौर-कौर पर
चरकोक्त-औषधि मान-झरोखों के भीतर जो ली जानेवाली औषध ग्रासान्तर कहाती है। इनमें
सूक्ष्म रजकण दिखाई देता है, उसे वंशी कहते से निर्भक्त वीर्य बढ़ाता, प्राग्भक्त शीघ्र अन्न पचाता,
हैं । वहीअधोभक्त बहुविध रोग मिटाता, मध्येभक्त मध्य
६ वंशी-१ मरीचि देह के रोग निवृत्त करता, अन्तराभक्क हृद्यता लाता
६ मरीचि-१ सर्षप और सभक सब रोगियों के लिये पथ्य समझा
८ रन सर्षप=१ तण्डुल जाता है । सु० उ०६४ अ०।
२ तण्डुल धान्यमाष औषध परीक्षा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] औषध के २ धान्यमाष%D१ यव ठीक होने न होने की जाँच । परीक्षा-विधि- ४ यव=१ अस्डिका जैसे,इस द्रव्यकी प्रकृति कैसी है ? इसके क्या-क्या ४ अण्डिका=१ माघक, हेम, धानक गुण हैं ? इसका क्या प्रभाव है ? इसके उत्पन्न होने
३ माषक-१ शाण का स्थान कैसा है या किस स्थान में होती है ?
२ शाण=१द्रंक्षण, कोल, वदर किस-किस ऋतु में उत्पन्न होती है तथा उसके
२ द्रंक्षण=१ कर्ष, सुवर्ण, अक्ष, विडालपदक, उखाड़ने तथा ग्रहण करने का कौन सा काल है?
पिचु, पाणितल संयोगभेद से इसमें कौन-कौन से गुण प्रगट होते २ कर्ष=१ पलाद्ध, शुक्कि, अष्टमिका हैं ? किस मात्रा में देने से उत्तम गुण करती है ?
२ पलार्द्ध १ पल, मुष्टि, प्रकुञ्च, चतुर्थिका, विल्व, किस प्रकार के रोग में और कौन से काल में
. षोडशिका, पाम्र किस प्रकार के प्राणी के लिये उपयुक्त है ? किस २ पल=१ प्रसृत, अष्टमान प्रकार के दोषों को अपकर्षण करने के लिये एवं ४ पल-१ कुडव, अञ्जलि किस-किस दोष को शांत करने के लिये इसका २ कुडव मानिका