Book Title: Aayurvediya Kosh Part 03
Author(s): Ramjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
Publisher: Vishveshvar Dayaluji Vaidyaraj

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Page 707
________________ कंसार गुण तथा उपयोग — इसमें से प्रतिदिन १ हड़ और २ कर्ष अवलेह खाने से प्रवृद्धि शोथ, श्वास, ज्वर, अरुचि, प्रमेह, हिचकी, प्लीहा, त्रिदोषजन्य उदर रोग, पांडु, कृशता, आमवात, अम्लपित्त, विवर्णता, वायुविकार, मूत्रविकार और शुक्र दोषों का नाश होता है । २४३६ कँहान, कहा और सती । श्राजकल इस मूत्तिका का एकांत अभाव होने से परिभाषा के प्रदेशानुसार इसके बदले औषधों में पंक चर्पटी डालते हैं । कंसीय-सज्ञा पुं० सं० क्ली० ] कांस्य धातु । काँसा | च० चि० १२ श्र० । सं० की ० ] अस्थि । काँसे जैसी कँहान्, कौंहान्-संज्ञा स्त्री० [नती | कोहान से श्ररबीकृत ] एक छोटो जाति का उद्भिद् जिसके पत्तों का रंग एवं तीव्रता बतम के समान होती है । इसका तना मोटा होता है, जिससे बतम की शाखाओं के सहरा कोमल शाखाएं फूटती हैं । कंसार-संज्ञा पुं० सफ़ेद हड्डी | कंसास्थि - संज्ञा स्त्री० [सं० क्ली० ] ( १ ) काँसा । कांस्य धातु । "कसे तु कांस्यं कंसास्थि" | त्रिका० ( २ ) कंसार । कांसे जैसी सफेद हड्डी | कँसुवा-संज्ञा पु ं० [हिं० काँस ] एक कीड़ा जो ई के नए पौधों को नष्ट करता है । कंसो–[ गु० ] काँसा । कंसोद्रवा - संज्ञा स्त्री० [सं० खी० ] सोरठी मिट्टी । गोपीचंदन | सौराष्ट्रमृत्तिका । हे० च० । संस्कृत पर्य्या - श्रादकी, तुवश, काक्षी । कंसेक्या - [ ? ] स्योड़ा गाछ । मृदाह्वया, सौराष्ट्री, पार्वती, कालिका, पर्पटी नोट- ट - एक रुपया प्रवेश फीस जमा कराने अन्यों को नहीं। भारत में इसके जोड़ का उपयोगी और कहीं से भी नहीं मिल सकेगा । -व्यवस्थापकः प्रकृति - तृतीय कक्षा में उष्ण और रूक्ष । मात्रा - ३॥ मा० से १०॥ मा० तक । गुणधर्म तथा प्रयोग—इसके सूँघने से मस्तिष्क में गर्मी श्राती है । इसके पोने से शरीर में अत्यधिक ऊष्मा प्रादुर्भूत होती है । इससे श्रामाशय एवं शीतल यकृत में भी गरमी थाती है । यह पाचन शक्ति बढ़ाती है । इसमें यह एक विशेष गुण है कि इससे बिच्छू भागता है । इसके समीप नहीं फटकता । यदि इसके पसे बिच्छू पर डालें, तो वह तत्क्षण मर जाय । ( ख़० श्र० ) वालों को ही यह कोष पौने मूल्य में मिल सकता है, इतना बड़ा कोई कोष श्राजतक इतने कम दामों में

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