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औषध
और्वी मध्यत्वगीया नाड़ी
१८५६ स्त्री.] की पाश्चात्य त्वगीया नाड़ी (Post- अँखुमा । कोपल । (२) अाधार पात्र । बरतन ।
erior femoral cutaneous nerve) औषण-संज्ञा पुं॰ [सं. क्री.] (1) कदरस । और्वी-मध्यत्वगीयानाड़ी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०]
चरपरापन । (२) मिर्च । कालो मरिच । ऊरु की मध्य त्वगीया नाड़ी। (Middle
औषध-संज्ञा स्त्री० [स० क्ली.] वह द्रव्य जिससे femoral cutaneous nerve.)
रोग का नाश हो। रोग नष्ट करनेवाली वस्तु । और्वी-वाह्या(बहिः त्वगीयानाडी-संज्ञा स्त्री० [सं०
व्याधि हर द्रव्य । रोगन वस्तु । श्रोषधियों द्वारा
निर्मित योग। स्त्री०] अरु की वाह्य त्वगीया नाड़ी| Lateral femoral cutaneous nerve.
प-o-अगद । अमृत | अायुर्द्रव्य । श्रायुऔर्वी-शिरा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] जाँघ की योग । भैषज्य । जायु । जैत्र । गदारति । भेषज ।
शिरा । ( Femoral-vein.) अ. शा। चिकित्सित । व्याधिहर । पथ्य | साधन | प्रायश्चित् औव्य-संज्ञा पु० [सं० ली.] शोरा। शोरक । प्ररामन | प्रकृतिस्थापन । हित | च० चि०१० रोमक । धन्व० नि।
चिकित्सित । हित | पथ्य । प्रायश्चित । भिषग्जित । और्व-संज्ञा पु० [सं० वी० ] (१) नोनी मिट्टी । भेषज । शमन । वा. चि० २२ ०रा०
मृत्तिका लवण। (२) यवक्षार । जवाखार । नि० २० व०। ध०नि० मिश्र व०। रस (३) पांशुलवण | रेह का नमक रा०नि० चूर्ण, कषाय, अवलेह और कल्क भेद से इसके व०६।
मुख्य पाँच भेद हैं। ध०नि० मिश्र व. ७ । औल-संश पु० [सं० क्री० ] सफेद सूरन । श्वेत
__चरक के अनुसार इसके दो प्रकार हैं-(१) सूरण | वै. निघ।
देवव्यपाश्रय और (२) युक्ति व्यपाश्रय । उनमें संज्ञा पुं॰ [देश॰] जंगली ज्वर | वन्यज्वर । मणि, मन्त्र, औषध, मङ्गल-क्रिया, बलिदान, जंगली बुखार।
उपहार, होम,नियम, प्रायश्चित्, उपवास, स्वस्त्यऔल-[अ०] (१)उन्माद । दीवानगी । दीवानापन | यन, प्रणिपातन और देवयात्रादि को "देवव्यपागलपन । (२) दीवाना । पागल ।
पाय" कहते हैं और सशोधन, संरामन तथा औलक-[१०] दे॰ "श्रौल"।
दृष्टफल की चेष्टा प्रादि को "युक्तिव्यपाराय" औला-संज्ञा पु. [ देश. ) दे० "आँवला"।
कहते हैं। पुनः अंगभेद से वह दो प्रकार की औली-संज्ञा स्त्री० [सं० श्रावली ] वह नया और
होती है-(१) द्रव्यभूत भोर (२) अद्रव्य भूत हरा अन्न जो पहले-पहल काटकर खेत से लाया
(उपायभूत)। उनमें जो अद्रव्य भूत हैं वह उपाय गया हो । नवान्न ।
युक्त होती है; जैसे,भय प्रदर्शन, विस्मापन, क्षोभण, औलूक-संज्ञा पुं० [सं० क्ली० ] उल्लुओं का समूह ।। हर्षण, भर्त्सन, प्रहार, बंधन, निद्रा और संवाहपेचकझुण्ड । जटा।
नादि। यह सब प्रत्यक्ष रूप से चिकित्सा की औलूखल-वि० [सं० त्रि० ] अोखली में कूटा हुआ । सिद्धि के उपाय हैं । जो द्रव्यभूत हैं, उनका औल्वण्य-संज्ञा पु० [सं० की० ] अधिकता । ज्या- वमनादि कार्यों में उपयोग किया जाता है। च. दती। उल्वणता।
वि०८ ०। औवल-[१०] दे० "अब्वल"।
__ वाग्भट्ट के अनुसार औषध के मुख्य ये चार गुण औशीर-संज्ञा पुं॰ [सं० पु., क्री० ] (१) बालका हैं-(१) बहु कल्प अर्थात् जिससे स्वरस.काथ.
सुगन्धवाला । (२) खस वा तृण की चटाई ।। चूर्ण, अवलेह, गुटिका आदि अनेक प्रकार के रोग आसन । बिस्तर (३) चँवर ।
नाशक कल्प बन सके, (२) बहुगुण अर्थात् वि० [सं० वि० ] खस का । उशीर सम्बन्धी। अनेक रोगों को नष्ट करनेवाले गुरु मन्दादि मे रत्रिकं ।
अनेक गुणों से युक्र, (३) सम्पन्न अर्थात् औशीरिका-संज्ञा स्त्री० [सं. स्त्री.] (१) अंकुर । प्रशस्त भूमि देश में उत्पन्न हुई अनेक पाकादि