Book Title: Aayurvediya Kosh Part 03
Author(s): Ramjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
Publisher: Vishveshvar Dayaluji Vaidyaraj

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Page 630
________________ कसेर्वादिलेप कसेर्वाद लेप-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] एक लेपौषध । कसेरु, सिंघाड़ा, कमल, गुंजा, शवला (शैवाल), उत्पल (निलोफर ) और पद्माक को पीसकर घृत मिलाकर लेप करें, परन्तु लेप के नीचे कपड़ा लगा लेना चाहिए। गुण- इसके उपयोग से विसर्प नष्ट होता और प्रदाह दूर होता है । ( वृ० नि० २० विसर्प चि० ) “હેશ "कसेला, कसेल्हा, कसेली - [ नब्ती ] एक प्रसिद्ध वा संदिग्ध घोषधि की छाल वा लकड़ी । कहेला | कहेली । म० श्र० । ख० प्र० । बुब् मु० | दे० 'कहेला कहेली' । कसेला - [ नब्ती ] एक पौधे की लकड़ी । [ फ्रा० ] खोली । कसेली - [ फ्रा० [] खोली । कसैला - संज्ञा पु ं० नर हिरन । कसैली - संज्ञा स्त्री० [हिं० कसैला ] सुपारी । पूगफल । कसौटी - संज्ञा स्त्री० [सं० कषपट्टी ] ( १ ) एक प्रकार का काला भारी पत्थर जिस पर रगड़कर सोने की परख की जाती है । यह ख़ाकी भी होता है और दजला नदी में मिलता है । प्रधानतः यह काबूस नगर में भी पाया जाता है। इसके उत्तम होने की परीक्षा यह है कि जब इसमें अबाध मुख- वाष्प लगती रहे, तब इससे केशरवत् श्रास्वाद प्रतीत होने लगता है । इसे शरीर पर घर्षण करने से यह शरीरगत मलिनता का निवारण करता है । हजुलल मिहक ( श्रु० ) । काष्टिपाथर (बं० ) । कषपट्टिका, कषः (सं० ) प्रकृति - द्वितीय कक्षा में शीतल एवं रूह | स्वाद—फीका और कुछ कडुआ । हानिकर्त्तावस्ति को | दर्पन - शुद्ध मधु । मात्रा - ६ रत्ती तक । कसौंजा कसौंजा - संज्ञा पुं० [सं० कासमई, पा० कासमद्द में एकशिंबीवर्गीय चुप जो शुरू बरसात में प्रथम पानी पड़ते ही उगता है और वर्षा भर बढ़ता रहता है । बहुत बढ़ने पर यह श्रादमी के बराबर वा इससे अधिक ऊँचा और सीधा होता है । यह शाखा बहुल होता है । शाखायें दीर्घ मसृण और चतुर्दिक परिविस्तृत, प्रायः जड़ के पास से वा उससे किंचित् ऊपर से निकली हुई होती हैं । पत्तियाँ - इसकी एक सींके में आमने-सामने २-६ ( ३-५ ) जोड़े लगती हैं, जिनके मध्य ग्रंथियाँ नहीं होतीं हैं। यह भालांडाकार, प्रायः गोल, नुकीली और दोनों ओर से मसृण होती हैं । इमली प्रभृति अन्यान्य उद्भिद की पत्तियों की तरह इनकी पत्तियाँ भी अवनत होकर एक के साथ और एक मिल जाती है। फूले हुए पत्र वृन्तमूल के समीप एक वृहत् वृतिशून्य ग्रंथि होती है । पुष्प - सवृत, क्षुद्र, पीतवर्ण का ( चकवँड की तरह) और वृत लंबोतरा होता है। ऊपरी पुष्प स्तवक शाखांत वा टहनी के सिरे पर और निम्न पुष्प गुच्छ ३-५ तक श्रति क्षुद्र कक्षीय पुष्प दंड पर स्थित होते हैं। यह वर्षांत वा जाड़े के दिनों में फूलता फलता एवं हेमंत में परिपक्क फली के सहित शुष्कता को प्राप्त होता है । फलियाँ - ६-७ अंगुल लंबी, पतली और चिपटी ( चकवड़ की भाँति चिपटी नहीं ) लगती हैं जो चतुर्दिक् उभड़ी हुई प्राचीर ( Tumid border ) द्वारात होती हैं । फलियों के भीतर बीज भरे रहते हैं। बीज भूरे गोलाकार चक्रिका कृति के, ३ ४ इंच व्यास के और १६ १६ गुणधर्म तथा प्रयोग - श्वासकृच्छ्रता और वृक्कशूल में इसका सेवन गुणकारी है। स्त्री दुग्ध में घिसकर आँख में लगाने से जाला, नेत्र - पटल की कठोरता और चक्षुद्रण में उपकार होता है । ख० अ० । बु० मु० । - 9 १६ इंच मोटे होते हैं। बरसात में खाली पड़ी हुई ज़मीन में जहाँ कूड़ा-कर्कट पड़ा हो यह उत्पन्न होता है । इसकी गंध बुरी-खराब होती है । कसौंजे का पौधा चकवड़ और काली कसौंदी के पौधे से बहुत कुछ मिलता जुलता होता है । भेद केवल यही है कि इसके पत्ते नुकीले होते हैं और चकवड़ के गोल, इसकी फली चौड़ी और नुकीले और कुछ चिपटे होते हैं। पर चकवड़ की फली पतली और गोल होती है जिसके भीतर उर्द की तरह के दाने होते हैं ।

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