Book Title: Aayurvediya Kosh Part 03
Author(s): Ramjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
Publisher: Vishveshvar Dayaluji Vaidyaraj

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Page 686
________________ कंघी २४१८ बीज, कंघी के बीज - हिं० । कंगोई के बीज - द० । तुत्तिविरै - ता० । तुति वित्तुलु, तुतुरु - बेंड-बित्तुलु -ते । तुत्त वित्त; पेट्टक पुट्टि - वित्त मल० । श्री मुद्विबीज कना० | झुमका- गाछ बीज, पिटारी गाछ - बीज - बं० । कंगोई-नु-बीज - गु० । श्रनोद - श्रट्ट - सिं० । बलबीज - बम्ब०, कच्छ । वज्र ल् मरतुल् ग़ौल - श्रु० । तुख्मे दरख्ते शानः - फ्रा० निर्णायिनी टिप्पणी-किसी-किसी के मत से सफेद बरियारा ही अतिबला है । भाव प्रकाशकार अतिबला का हिंदी नाम " ककहिया " लिखते हैं । भारतवर्ष में जिसे 'ककहिया' नाम से एक-एक श्रादमी जानता है, उसे ही बंगला में 'पिटार' नाम से जानते हैं। भावप्रकाशोक्त भाषा नाम के श्रात होने से यह ज्ञात होता है कि अतिबला पेटारि ही है और सफेद बरियारा नहीं हो सकती । वृन्दकृत सिद्धयोग के वाताधिकार में पठित नारायण तैलोन "बालावातिबला चैव " पाठ की व्याख्या में श्रीकण्ठ भी लिखते हैं"अतिबला पेटारिकेतिप्रसिद्धा" | बंगाल में 'पेटारि ' सर्वजन सुपरिचित है । वि० दे० "बला " राक्सवर्ग और खोरी ने श्रतिबला के जो लेटिन नाम दिये हैं, हमारे निकट वे ही संगत प्रतीत होते हैं । Abutilon Asiaticum और A. populifolium (G. Don.) ar at उपयुक्त पौधे के केवल भेदमात्र हैं । या भिन्न जाति, पर इनकी देशी संज्ञाएँ प्रायः एक ही हैं । औषधीय व्यवहारानुसार भारतवर्ष में इनको ant स्थान प्राप्त है, जो ख़त्मी ( Marsh Ma llow ) तथा खुब्बाजी ( Mallow ) को योरुप में । तथापि इसका एक भेद ऐसा भी है, जो सदा विभिन्न संज्ञाओं से सुविदित है । यह अपने प्रकांड, शाखा, पत्र-वृत प्रभति के बैंगनी रंग द्वारा पहचाना जाता है और मदरास में झाड़झंखाड़ों में प्रायः उपजता हुआ पाया जाता है अपने बैंगनी रंग के कारण इसे इन नामों से अभिहित करते हैं—ऊदी या काली- कंगोई-काझाड़ (द० ), करु या करन-तुति ( ता० ), मल्ल तुति या नलनूगु-बेंड ( ते ० ) । 1 कंधी उपर्युक्त पर्य्याय-सूची-गत संज्ञाएँ यथार्थतः केवल कंधी (Abutilon Indicum ) और A. Asiaticum aur A. populifolium सहित उसके भेदों की हैं; परंतु कतिपय ग्रंथों ( Materia Indica, etc) में, उनमें से कुछ संज्ञाओं का संयोगवश Malva (Sida ) Mauritiana के लिये प्रमाण पूर्ण उपयोग किया गया है। यद्यपि उत्तरोक्त पौधा प्रायः भारतवर्ष में उपलब्ध होता है, पर इसे विलायती इस उपसर्गद्वारा पृथक् जानना चाहिये । जैसे, विलायती कंगोई का फाड़, इत्यादि । कंधी वा कंगोई शब्द का कतिपय ग्रंथों में अरबी तथा फारसी खब्बाजी, ख़त्मी और तोदरी शब्दों के पर्याय स्वरूप हैं । जो परस्पर सर्वथा भिन्न द्रव्य हैं ग़लत प्रयोग नहीं, श्रपितु इसे कंगोनी या कंगूनी शब्द से यह भी भ्रमपूर्ण बना दिया गया है, जैसा कि साधारणतया लिखा जाता है । यह उत्तर कथित शब्द कंगु ( Panicum Italicum ) की एक दक्खिनी संज्ञा है । बीसीना वर्णित प्रबूतीलून नामक औषध जिसका क्षत पर उपयोग होता था, अधुना एब्युटिलन ( Abutilon ) नाम से विदित पौधे से सर्वथा भिन्न होगी; क्योंकि वे इसकी कह (Pumpkin ) से तुलना करते हैं । बलावर्ग (N. O. Malvaceœ.) उत्पत्ति स्थान - सम्पूर्ण भारतवर्ष के उष्णप्रधान प्रदेश शुक्रप्रदेश और लंका । यह बरसात में उत्पन्न होती है। फुट वानस्पतिक वर्णन - एक पौधा जो पाँच छः ऊँचा होता है । इसकी पत्तियाँ पान के आकार की चौड़ी पर अधिक नुकोली एवं शुभ्र रोमान्वित होती है । पत्र प्रांत दन्दानेदार होते हैं, पत्तियों का रंग भूरापन लिये हलका हरा होता है, पत्रवृंत दीर्घ होता है । यह शरद ऋतु में पुष्पित होता है और शीतकाल में इसका फल परिपक्क होता है। प्रत्येक दीर्घवृन्त पर एक-एक फूल लगता है । फूल पीले २ और पाँच पंखड़ी युक्त होते हैं । फूलों के झड़ जाने पर मुकुट के आकार के तेंद

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