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कतूरियून कबीर
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कंतूरियून सगार पुरानी खाँसी में इससे बहुत उपकार होता है। यह रोधोद्धाटक है और श्वास, पार्श्वशूल, क्योंकि उक्त रोगों में इस बात की आवश्यकता यकृत तथा प्लीहा के सुद्दों, कफज कुलंज, जलंधर होती है कि इन अवयवों से मलों की शुद्धि की (इस्तिस्काs) और कामला (यौन) को जाय और साथ ही उनको शक्ति प्रदान की जाय । गुणकारी है । यह श्रामाशय गत कृमियों को नष्ट यहाँ पर यही बात होती है अर्थात् इसकी चरपरा- करती और उन्हें निकालती है। इसका प्रलेप हट एवं तीक्ष्णता से मलों का शोधन होता है
अर्श, अंगस्फुटन, गृध्रसी तथा पट्ठों के शूल का और चूँ कि इसमें किसी प्रकार माधुर्य होता है ।। निवारण करता है। अस्तु, इससे मलोत्सर्ग को जो क्रिया होती है, वह | कंतूरियून तोलीदून- यू.] कंतूरियून सगीर । कंतू. तीव्रता एवं सख्ती के साथ नहीं होती और इसके रियून दकीक । संग्राही गुण से शक्ति प्राप्त होती है । (त० न०) | केतूरियूनमलूफाखा-[ यू०] कंतूरियून कबीर ।
कंतूरियून सग़ीर से अल्पशक्ति है । यह विला- कंतूरियून ग़लीज़ ।। यक एवं निर्मलताकारक है। इसकी जड़ से प्रार्त्तव | कतूरियून सग़ार-संज्ञा स्त्री० [रू०, यू०] एक का खून जारी होताहै और यदि पेट में बच्चा हो तो वनस्पति जो एक वालिश्त के बराबर या उससे निकल पड़ता है। यह वक्ष एवं मस्तिष्क का कुछ अधिक बड़ी होती और रबी की फसल में शोधन करती है, श्वासकृच्छता को लाभ पहुँचाती होती है। इसमें कांड और शाखाएँ होती हैं। यह है।रक्रनिष्ठोवन में भी उपकारी है और प्रणों का दो प्रकार की होती है जंगली तथा बागी । पूरण करती है। कहते हैं कि यदि मांस की इनमें से जंगली का फूल रक वर्ण का होता है, बोटियाँ करके उक ओषधि उसमें डालकर पकायें, जिसमें कुछ नील वर्ण को झलक होती है। बाग़ी तो वह सब आपस में मिल जायँ अर्थात् जुड़कर का पौधा इससे परिपुष्ट और उच्च होता है मांस का एक पारचा बन जाय। यह पुरानी और उसका फूल चित्र विचित्र वर्ण का होता है खाँसी को दूर करती है, मूत्र तथा आर्तव का यह जंगलो की अपेक्षा अधिक सुगंधित होता है प्रवर्सन करती है और प्लीहा की सूजन को लाभ और पेड़ में मास तक रहता है। पौधा सूख पहुँचाती है । इसके उपयोग से सरलतापूर्वक जाने के उपरांत बाग़ी की जड़ पृथ्वी में रहती है। शिशु पैदा हो जाता है। यह गर्भाशय के रोगों के प्रति वर्ष रबी की फसल में उक्त जड़ में से पौधा लिये गुणकारी है; उदरस्थ कृमियों को नष्ट करती। फूटता है। जंगलो की जड़ भी शुष्क हो जाती है भोर भगंदर एवं वाततंतुगत क्षतों का पूरण करती और हर साल रबी के प्रारंभ में पौधा फूटकर है। पहरींगन वायु जनित शूल के लिये परी. प्रोमारंभ में फूल ओर बीज आ जाते हैं । दीसक्षित है । यह वायु को विलीन करती तथा कफ फरीदूस ने जो यह लिखा है कि रबी के अंत में
ओर पित्त का मल द्वारा उत्सर्ग करती है । इसका पौधा उगता है, उससे बाग़ो किस्म अभिप्रेत घूर्ण नासूरमें भरकर मुंह बाँधदें, तो कल्याणहो। होगी। क्योंकि जंगली के संबंध में हकीम उल
शेला के मतानुसार ज्वर में इसे ७ माशे की वीखाँ लिखते हैं कि यह रबी के प्रारंभ में उगती मात्रा में देने से उपकार होता है। परंतु गाज़रूनी है। बाग़ी के फूलोंको शीराज़ निवासी 'गुलेमेनक' इस पर यह आपत्ति करते हैं कि उन औषधि और 'गुले करन्फली' कहते हैं । बाग़ी और जंगली तृतीय कक्षा पर्यंत उष्ण है। अस्तु, ऐसो औषधि दोनों जाति के पौधों के अवयव समान होते हैं। ज्वर में कब लाभकारी हो सकती है। इसके पीने पत्ते छोटे-छोटे और प्राकृति में सुदाव के पत्तों की से यदि ज्वर में कुछ भी उपकार हो, तो वह कफ तरह होते हैं । फूल खैरी के फूल की तरह, पर ज्वर में होना संभव है। परंतु उस समय इसका उससे क्षुद्रतर होता है। फल गेहूं के दाने की अकेले उपयोग न कर, सिकंजबीन शकरी या तरह होता है। इसका स्वाद अत्यन्त तिक सिकंजबीन बजूरी सर्द के साथ दें, वरन् मस्तिष्क और किसी प्रकार विकसा होता है। किंतु बागी रोगों का प्रादुर्भाव कर देगी । ( ख़ा० प्र०) | में कडू पाहट कम होती है। शाखाओं का वर्ण