Book Title: Aayurvediya Kosh Part 03
Author(s): Ramjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
Publisher: Vishveshvar Dayaluji Vaidyaraj

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Page 660
________________ कस्तूरीमृग कस्तूरी से निकल कर फैली हुई प्रबल तीव्र गंध का वात संस्थान; दृष्टि और श्रवण पर अत्यंत प्रभाव पड़ता है । श्रतएव लोगों का कथन है कि शिकारियों को बहुधा उससे असह्य यातनायें भुगतनी पड़ती हैं । इसकी मस्त सुगंध सुधबुध भूल जाते हैं। में वे 1 शिकार करने पर इसकी नाभि काट ली जाती है। नाभि वा नाना एक झिल्लीदार थैली है जिसके अंतरपट में छोटे २ श्रनेक छिद्र होते हैं । इनसे कस्तूरी उद्धृत होती है और उक्त थैली के पार्श्व में रहनेवाली परिचालक थैली में इसका संचय होती है। इन थैलियों को देखने पर पार्श्व भाग चपटा दिखाई पड़ता है । कभी २ यह पार्श्वस्थ चमड़ा जननेन्द्रिय पर्यन्त कस्तूरी थैली सहित सब काटकर बेचने को ले आते हैं। कभी थैली और पार्श्वस्थ चमड़ा जननेन्द्रिय पर्यन्त कस्तूरी थैली सहित सब काटकर बाहर निकालते हैं । कस्तूरी एक नीले परदे की थैली में रहती है । इसलिये कस्तूरी को 'नील कस्तूरी' नाम से श्रभि - हित करते हैं। यह नीला परदा श्रत्यन्त सूक्ष्म और पतला होता है अतएव कस्तूरी में बनावटी वस्तुओं का सम्मिश्रण करना सहज काम नहीं है । मील कस्तूरी इसी नीले परदे के कारण खूब शुद्ध और अच्छी समझी जाती है तथा अधिक मूल्य पर बिकती है। २३६२ असली मृग नाभि वा नाने के आधे भाग पर ही बाल होते हैं, क्योंकि नाफ़ा मृग की नाभि के भीतर रहता है और उसको निकालते समय नाभि स्थल को चीरकर उस नाभिग्रंथि को भिन्न करते हैं तो उसका श्राधाभाग उदर के भीतर होता है उस भाग की खाल बिलकुल साफ होती है । उसपर कोई बाल नहीं होते, किंतु उसके बाह्य वा 1 पृष्ठ के केन्द्र में एक छोटा सा छिद्र होता है। जिसको चतुर्दिक् खाकी रंग के कड़े बालों की एक भौंरी सी होती है। इस थैली या नाने के भीतर बहुसंख्यक कोष होते हैं, जिनमें कस्तूरी के क भरे रहते हैं । यह नाफा नर और युवा कस्तूरा की नाभि में ही पाया जाता और विविध श्राकृति का होता है। इनमें से कोई गोल श्रण्डाकृति और चिपटा कटोराकृति प्रायः १॥ इंच व्यास का कस्तूरीमृग होता है । कटोराकृति को कटोरी और गोल को बैजा कहते हैं । नाने का मुख वा द्वार सुपारी के समीप होता है। ताज़ा नाफ़ा हाथ से दबाने पर पिचक जाता है और उसे दबाकर यह मालूम किया जा सकता है कि उसमें कितना माल है और कितना खाल | प्राणि की अवस्था के साथ नाभिस्थ द्रव्य का बहुत गहरा संबंध होता है। प्राणि के अवस्था भेद से नाफागत द्रव्य वा कस्तूरी की मात्रा में भी भेद हुआ करता है अर्थात् जैसे जैसे प्राथी की अवस्था बढ़ती जाती है, वैसे वैसे क्रमश: नाभिस्थ सुगंध - द्रव्य की मात्रा भी उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है । अतः एक वर्षीय मूग-शिशु के नाने में मुश्किल से कोई कस्तूरी होती है। परंतु वही द्विवर्षीय किशोर मृग - शिशु में इसकी मात्रा एक श्राउस का श्रष्टमांश हो जाती है और वह क्षीरवत् एवं अप्रिय गंध होती है । तदुपरांत यौवन उपस्थित होने पर कस्तूरी १-२ उस तक हो जाती है की श्रायु तक बराबर रहती है । उस से 1⁄2 उस तक के कस्तूरी पूर्ण नाफों के नमूनों का मिलना तो एक साधारण बात है । यह श्रायु भाग व्यतीत होने के उपरांत पुनः कस्तूरी मृग में नाभि का अस्तित्व नहीं रहता । में 1 कहते हैं कि दिसम्बर सन् १९११ ई० में महाराज नेपाल की ओर से महाराजाधिराज जार्ज पंचम को जो उपहार भेंट किये गये थे, उनमें ६-६ तोले के कस्तूरीके नांफ्रे भी थे। एक नाने में सामान्यतः २॥ तोले ( श्राधी छटाँक से लेकर पाँच तोले तक) कस्तूरी निकलती है । वंही प्रायः और ६-७ वर्ष मृगनाभि बहुमूल्य वस्तु है। बाजार में इससे काफी दाम मिलते हैं । इसी हेतु इस हतभाग्य क्षुद्र जीव- कस्तूरी मृग का निर्दयता पूर्वक संहार किया जाता है। अनुमानतः कम से कम कस्तूरी की २२ थैलियों के एकत्र होने पर भट्टी ( One caty = 9 पौंड ) की सामग्री तैयार होती है। सुतराम् एक भट्टी की सामग्री में २२ नर हिरनों का संहार होना चाहिये । परन्तु बात इसके विपरीत होती है । अर्थात् भट्टी कस्तूरी के लिये २२ की जगह ३०-३२ हिरनों की मृत्यु होती है ।

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