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कॅगनी
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कँगनी
यथोत्तर प्रधानाः स्यूरूक्षाः कफहराः स्मृताः ।।
(सुश्रुतः सू० ४६ अ. कुधान्यव०) अर्थात् काली, लाल, पीली तथा सफेद और ये उत्तरोत्तर श्रेष्ठ होती हैं तथा रूक्ष और कफ नाशक होती है। निवण्टु द्वय में कैंगनी का नाम "पीत तण्डुल" निर्देश किया गया है। यदि उन्हें रक्तादि भेद स्वीकृत होता तो ऐसा नाम न लिखा होता। नवीन संग्रहकार भावमिश्र ने भी कृष्णादि चतुर्विधि कंगु का उल्लेख किया है यथास्त्रियां कंगुप्रियंगूद्वे कृष्णा रक्तासिता तथा । पीता चतुर्विधाकगुस्तासां पीतावरा स्मृता॥
. (भा०) परंतु पीतकंगु से भिन्न कृष्णादि अन्य तीन प्रकार के कंगुत्रों को हमने नहीं देखा है। ___ इसके अतिरिक्त निघण्टु कार इसके एक और भेद का उल्लेख करते हैं, जिसे 'वरक' अर्थात् बड़ी कँगनी कहते हैं । लिखा है"वरकः स्थूलकंगुश्च रूक्षः स्थूलप्रियंगुकः।"
(रा०नि० व०१६) अर्थात् वरक के पर्याय ये हैंस्थूलकङ्गुः, रूक्षः. स्थूल प्रियंगुकः, वरक: (स्थूल कंगू)।
रासायनिक संघटन-एक विषाक्त ग्ल्युको. साइड और तैलीय क्षारोद।
औषधार्थ व्यवहार-मूल और तण्डुल । मात्रा-मूल-१ तोला । तण्डुल विशेषतः पथ्य रूप से व्यवहार में आता है।
__ गुणधर्म तथा उपयोग
आयुर्वेदीय मतानुसारप्रियङ्गर्मधुरो रुच्यः कषायः स्वादु शीतलः । वात कृत्पित्तदाहघ्नोरूक्षा भग्नास्थि बन्धकृत् ।।
(रा० नि० व० १६ तथा ध० नि० ६ व०) प्रियंगु (कॅगनी) मधुर, कसेला, रुचिकारक, स्वादु, शीतल, वायुजनक, पित्त एवं दाहनाशक, रूखा और टूटी हुई हड्डी को जोड़नेवाला है। __वरक के गुणवरको मधुरो रूक्षः कषायो वातपित्तकृत् ।
(रा०नि० १६ ब०) |
वरक (बड़ी कँगनी)-मधुर व रूखी, कसैली और वात तथा पित्तकारक है । साठी से यह हीन गुणवाली होती है। भग्नसंधान कृत्तत्र प्रियंगु हणीगुरुः ।
(वा० सू० ६ १०) कॅगनी-टूटी हड्डी को जोड़ने वाली, पौष्टिक और भारी है। कङ्ग का वृहणी गुर्ची भग्नसन्धानकृन्मता ।
(राजवल्लभः) कॅगनी-पुष्टिकारक, भारी, भग्नसंधान कारक और वात वर्द्धक है। कङ्गस्तु भग्नसन्धानवातकृत् वृहणीगुरुः । रुक्षा श्रेष्महराऽतीव वाजिनां गुण कृद्भशम् ।।
(भा०) कँगनी-भग्नसंधानकारक-टूटे स्थान को जोड़नेवाली, वायुकारक, वृंहण, भारी, रूक्ष, अत्यन्त श्लेष्म नाशक और घोड़ों के लिये विशेष गुणकारी है।
वैद्यक निघण्टु के अनुसार यहधातु वृद्धिकारक, वातकारक, भारी, अस्थि संधानकारक, रूक्ष और घोड़ों के लिये हित कारक तथा कफ नाशक है। पीली कंगनी गुण में अधिक है। कङ्गः शीतो वातकरो रूक्षो वृष्यः कषायकः । धातुवृद्धिकर: स्वादुगुरुश्चाश्वहितावहः ।। भग्नास्थि सन्धान करो गर्भपाते हितावहः । कफ पित्त हरश्चायं कृष्णरक्ताच्छपीतकैः ॥ वर्णैश्चतुर्धा समतो गुणैश्चोत्तरतोऽधिकः ।
कंगनी-शीतल, वात कारक, रूखी, वृष्य, कषेली, धातु वर्द्धक, स्वादिष्ट, भारी, घोड़ों को हितकारी, भग्नास्थि सन्धान कारक, गर्भपात में हितकारी और कफ पित्त नाशक है, यह कृष्ण, रक्क, सुफेद और पीली इन भेदों से चार प्रकार की है । इन में एक से एक के अधिक गुण हैं।
वैद्यकीय व्यवहार चक्रदत्त-(१)नाड़ी व्रण में कमुनिकामूलकंगुनिकामूल चूर्ण को भैंस के दही और कोदो