Book Title: Aayurvediya Kosh Part 03
Author(s): Ramjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
Publisher: Vishveshvar Dayaluji Vaidyaraj

Previous | Next

Page 681
________________ कंकरखर २४१३ कँगनी होते हैं । स्वाद में यह तीक्ष्ण, कटुक एवं कुस्वादु कंकेर - संज्ञा पु ं० [देश० ] एक प्रकार का पान जो होता है। कड़ा होता है | कंकोड़ा-संज्ञा पु ं० [ ककोड़ा ] ककोड़ा | कंकोल - संज्ञा पुं० [सं० ] ( १ ) शीतलचीनी का एक भेद । ( २ ) कंकोल का फल | कंकोल मिर्च | दे० "कंकोल ” । कंकोल की - संज्ञा स्त्री० [सं०] काकोली | करवी । न० ना० से० । 1 कंकोल - [ मरा०, क० ] कबाबचीनी । शीतलचीनी | [ मरा०, बम्ब० ] कंकल । चव्य । चाव | कं कोलदाना -संज्ञा पुं० दे० " कंकोल मिर्च" । कंकोल मिर्च संज्ञा स्त्री० [सं० कंकोल + हिं० मिर्च ] कंकोल का फल | दे० " कंकोल " । कंक्र - संज्ञा पुं० [?] तिर्यक्कू पल । पापट । कुकुर चूर (बं० ) । कंखजूरा - संज्ञा पु ं० दे० " कनखजूरा" । कँखवारी - संज्ञा स्त्री० [हिं० काँख ] वह फोड़िया जो काँख में होती है। कंखवार । कखवाली । ककराली । कॅखौरी - संज्ञा स्त्री० [हिं० काँख ] ( १ ) काँख । (२) दे० "कँखवारी” । प्रकृति -- द्वितीय कक्षा के अंत में उष्ण और रूत | हानिकर्त्ता - शरीर के नीचे के अगों को । दर्पंन—उन्नाव, कतीरा और शीतल पदार्थ । प्रतिनिधि—× । मात्रा – ४॥ माशे तक | मुख्य कर्म - मूत्र प्रवर्त्तक, रजः प्रवर्त्तक, वायु नाशक श्रोर रक्क स्थापक । गुणधर्म तथा प्रयोग - शरीर के भीतर गरमी उत्पन्न करता और सूजन उतारता है । शरीर के प्रत्येक अंग से रक्त स्राव होने को रोकता है, मूत्र औरत का प्रवर्तन करता है, और वृक्काश्मरी को खंड खंड करके निकालता है। इसका क्वाथ श्रामाशय एवं श्रांत्रस्थ सांद्र वायु को विलीन करता और श्रामाशय को गरम करता है । चेहरे के रंग को निखारता है । यह पार्श्वशूल, कामला (यर्कान ), विवृद्ध प्लीहा, मरोड़ और श्रांत्रक्षत को गुणकारी है । इसका तरेड़ा शीत ज्वर में लाभकारी है । ( बु० मु० ) कंकरखर- [ फ़ा० ] बाद श्रावर्द | कंकरज़द-[ फ़ा० ] हर्शन का गोंद। कंकरी । तुरा- कँखिना - [ बम्ब० ] पीलू । बुल्कै । दे० "हर्शफ़” । कंकर सफ़ेद - [फ़ा॰ ] बाद वर्द | कंकरा - [ बं० ] Bruguinera gymnorhiza. कँकरी- [हिं०, द० ] ककड़ी | कंकरी - [ फ़ा० ] हरशफ़ का गोंद । कँकरोल-[ बं० ] धारकरेला । गोल ( २ ) एक प्रकार का कद । सूम । ककरा | Momordica Mixta कंकला ( काँकला ) -[ बं० ] काकोलो । ( Zizy phus Napica.) कहन, कंकहर - [ यू० ] शालवेष्ट । राल । नैक़हर | कहन | Cancamum. कंकाल-संज्ञा पु ं० [सं० ] ठठरी । श्रस्थिपंजर | कंकी - संज्ञा स्त्री० [सं०] किंकणी | कंकुटी - [ म० ] चाकसू । ॐ कुतो -संज्ञा स्त्री० की। कंपनी । क । कंगई - [ पं० ] मयूर शिखा । मोर शिखा । मोर पंखी । संज्ञा स्त्री० [हिं० कंघी ] कंघी । कंगई विलायती -संज्ञा स्त्री० खुडबाजी । ख़ित्मिए कोचक | कंगकु-[ उ० प० प्रां० ] नेवार | कसूरी (नैपा० ) कंगजी - [ लेप० ] बरगद | वट | कंगनखार - [ ] लघमी । कँगना-संज्ञा स्त्री० [सं० कंकु ] एक प्रकार की घास । साका | कँगनी -संज्ञा स्त्री० [सं० कङ्गु ] एक अन्न का नाम । पर्थ्या०- (संस्कृत) प्रियंगुः कंगुकश्व चीनकः पीततण्डुलः । अस्थिसंबंधनश्चैव कङ्कनी षट् च कथ्यते ॥ ( ध० नि० सुवर्णादि ६ व० ) अर्थात् कँगनी के ये ६ पर्याय हैं - प्रियङ्गुः, कङ्गुकः, चीनकः, पीततण्डुलः, अस्थिसंबंधन:, कंकनी ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716