Book Title: Aayurvediya Kosh Part 03
Author(s): Ramjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
Publisher: Vishveshvar Dayaluji Vaidyaraj

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Page 679
________________ कह्नारघृत २४११ कच्छराक्षस तेल दे. "कुई" । (२) कूई ।बघवल कोकाबेली। कक्ष-संज्ञा पु० [सं० पु. (१) अंगाधः कोटर । कुमुद पुष । चि० क्र. क. केशरपाक । “कहार रत्ना०। (२) महिष। भैंस । (३) लता । पद्मोत्पल चन्दनाम्बु"। बेल | अम० । मे० पद्विकं। (४) गूगुल । पO०-सोगंधिक (अ.), सोगंधिकं, गुग्गुल । वै.निव०। (५) सूखी घास । शुष्क कल्हारं, हल्लकं, रकसन्ध्यकं (भा० पू० १ भ. तृण। ध०। (६) सूखा वन । शुष्क वन । पु० व०)। ( Nymphea edulis ) (७) पाप । दोष । हे. । (८)कच्छ कछार । गुण-कहार शीतल, ग्राही, गुरु, रूक्ष और (६) अरण्य । वन । जगल । (१०) गृहप्रकोष्ठ । विष्टम्भकारक होता है। भा० पू० १ भ. भीत । पाखा । (११) पार्श्व । काँख । बगल । पु० व०)। यह कसेला, मधुर, तथा शीतल (१२) काँछ । कछोटा । लाँग । (१३)कास । होता है और कफ, पित्त एवं रक विकार नाशक (१४) भूमि । (१५) घर । कमरा । कोठरी । है । (राज.)। यह ग्राही, अत्यन्त शीतल,भारी (१६) एक रोग । काँख का फोड़ा। कखरवार । रूक्ष और विष्टम्भकारक है (वै० निघ०)। (३) (१७) आँचल । (१८) दर्जा । श्रेणी। ईषत् श्वेत रक कमल । (४) कमल साधारण । (१६) तराजू का पल्ला । पलरा। (२०) कोई कमल । वै०निघ०। (५) श्वेत कमल । पेटी । कमरबंद । पटुका । सफेद कमल । (६.) रनकुमुद । तालकूई। कक्षधरमम्म-संज्ञा पुं॰ [सं० की. ] एक मर्म स्थान हलमक । शा. नि. भू०। विशेष । इसका स्थान काँख और छाती के बीच कह्नारघृत-संज्ञा पुं० [सं० की.] आयुर्वेद में हृद्रो- का भाग है। सु. शा०६०। गाधिकार में वर्णित एक योग । यथा कक्षपुट रस-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] एक रसौषधि । "कह्नारमुत्पलं पद्म कुमुदं मधुयष्टि का। शुद्ध पारद लेकर तप्त खल्व में डालकर निर्गुण्डी, पक्तवाम्बुनाथ तत्काथे जोवनीयोपल्पिते।। नीली, थूहर, ब्रह्मदण्डी; त्रिदण्डी (मोरसेंडा घृतं पक्क नवं पीतं रक्तपित्तास्रगुल्मनुत् ।" मराठी) सौंफ, मुग्दपर्णी, श्वेत प्राक, कौंचबीज, रस. र०। अरणी, पेटारी (कंघी), काला धतूरा, भाँग, अर्थात् कुई-सफेदकमल, नील कमल, रन क्षीर विदारी कंद इन प्रत्येक के अङ्ग स्वरसों से कमल और मुलेठी समान साग के क्वाथ के और एक-एक दिन मर्दन करें। पुनः इस तप्त खरल में जीवनो गण की श्रोषधियों के कल्क के साथ यथा डालकर मर्दन किया हुआ पारद लेकर इसका विधि सिद्ध नूतन घृत पान करने से रक्त पित्त गोला बनालें और इसेक्षीरकंद वा वज्रकंद (जंगली और रक्तार्श का नाश होता है। सूरन वा मानकंद) में गड्ढा खोदकर रखें और कह्न लसूदान-[अ० ] काले श्रादमी। उसी के मज्जा से गड्ढे को भर कपड़ मिट्टी देकर कह-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] वक पक्षी । बगुला । इस संपुट को वज्रमूषा में बंदकर लघुपुट में भाग श्रम। दें। इस प्रकार करने से जब स्वांग शीतल हो कहवः -[अ०] (१ दे० 'कहवा"। (२) एक जाय तब काम में लावे। प्रकार मद्य । मदिरा विशेष । कक्षरादि तेल- ) कह.व-इक्कीलुल जबल । कच्छ राक्षस तेल- संज्ञा पुं॰ [सं० की.] मैन. कह वाऽ-[ ] इक्कीलुल मलिक नाम का एक उद्भिद् । शिल, होरा कसीस, अामलासार गंधक, सेंधा कह. वान्-दे० कुह वान्"। नमक, सोना माखी, पत्थरफोड़ा, सोंठ, पीपल, कह वीन- कहवे में पाया जानेवाला एक क्षारोद । करिहारी, कनेर, वायविडंग, चित्रक, दात्यूणी, कह. ह.-[१०] वह खरबूजा जिसमें गूदा खूब हो, नीम के पत्ते समस्त धेला-धेला भर लें। जल में परन्तु अभी वह अपरिपक्व हो । कच्चा खरबूजा। महीन पीसकर पुनः २ सेर कड़वा तेल मिलाकर कह हाल-[अ] नेत्रचिकित्सक । नेत्र निर्माता ।। यथाविधि पकायें । पकते समय इसमें मदार का आँख बनानेवाला | चश्म साज़ । Deulist. दूध २ छ, थूहर का दूध २ छ, गोमूत्र ४

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