Book Title: Aayurvediya Kosh Part 03
Author(s): Ramjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
Publisher: Vishveshvar Dayaluji Vaidyaraj

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Page 682
________________ कँगनी २४१४ गुणी कंगुनी प्राचीन कः पीततण्डुलः । वानलः सुकुमारश्च स च नानाविधाभिवः ॥ ( रा० नि० शल्यादिः १६ व० ) अर्थात्-कङ्गुणो, कङ्गुनी, चोनकः, पी तण्डुलः वातलः, सुकुमारः ये इसके नाना प्रकार के नाम हैं । भावप्रकाशकार ने कंतुः श्रोर प्रियङ्ग इसके ये दो नाम दिये हैं । शेष संस्कृत पर्थ्या० - कङ्गुनिका, प्रियङ्गुः ( श्र०) कङ्गः प्रियङ्ग ( ० टी० ), कङ्गुका (रत्ना० ) कङ्गुणिका, कङ्गुणी, कङ्गुनीका, कंगूनी, गुफ पूर्वाचार्यकृत वर्णन -- 'कंगुनिका कायनीति" चक्रसंग्रह ढोकायां शिवदास ) | "प्रियंगुः कायनीति प्रसिद्धा" ( चरक टीकायां चक्रपाणिः ) । परिचय-ज्ञापिका संज्ञा - "पीततण्डुलः” । गुण प्रकाशिष सज्ञा - "वःतत्तः”, "अस्थि संबन्धनः " । अन्य भाषा के पर्याय काकन, ककुनी प्रियंगु, कंगु, टाँगुन, टॅगुनी, कङ्गनो, कंगनी, कंगुनी, काँगुनी, काँक, कंकनी, काँगनी, कानि - हिं० । कोर, काँनि धान वा दाना, का उम्, काडनी दाना-बं० । श्रर्जुन, कंगनीफ़ा । दुख्न, दिन - श्रु० । पैनिकम् इटैलिकम् Panicum Italicum Linn. सिटेरिया for Stania Italica, Beauv.ले० 1 इटालियन मिलेट Italian millet, डेकन ग्रास Daccan grass श्रं० । तिनै- ता० | कोरलु, प्रकेण पुचेट्टू कोलु - ते० । कांग - मरा० । काउन, बरयी - कों० । नवने शक्ति, कंगु गिडा - कना० । तिना -मल० । कुरहन् - सिं० । बाजरी - गु० । काल - शीराजी । श्यामाक वर्ग ( N. O. Graminacere. ) उत्पत्ति स्थान - यह समस्त भारतवर्ष, वर्मा, चीन, मध्य एसिया और योरुप में उत्पन्न होता है को बिहार राज्य में कङ्गु प्रचुर परिमाण में होता है। कँगनी वानस्पतिक वर्णन- - एक प्रकार का तृणधान्य है । सुश्रुत में कुधान्यवर्ग में कङ्ग, का पाठ श्राया है | यह मैदानों तथा ६००० फुट की ऊंचाई तक के पहाड़ों में भी होता है । इसके लिये दोमट अर्थात् हलक सूखो जमीन बहुत उपयोगी है । यह बाद सावन में बोई ओर भादों कार में काटी जाती है । कहीं-कहीं यह पूस के महीने में बोई जाती है और बैसाख के अंत में वा जेठ के शुरू में करती है। धान के नाल से कँगनी का नाल स्थूलतर एवं दृढ़तर होता है । जबतक यह श्रधिक बड़ा नहीं होता, तबतक इसका तना भूमि पर नहीं गिरता, श्राकृति वर्ण और काल के भेद से इसकी बहुत जातियाँ होती हैं। रंग के भेद से कँगनी दो प्रकार की होती है - एक पीली, दूसरी लाल | इसको एक जाति चेना वा चीना (Panicum Miliaceum) भी है जो चैत बैसाख में बोई और जेठ में काटी जाती है । और गुण में कंग के समान होती है कहा है- "चीनकः कंगु भेदोऽस्ति सज्ञेयः कंगुबद्गुणैः ।" इसमें बारह तेरह बार पानी देना पड़ता है । इसीलिये लोग कहते हैं- "बारह पानी चेन नहीं तो लेन का देन" वि० दे० "चीना" । कं तंडुल अर्थात् कँगनी के दानं सागुदाना से किंचित बड़े और साँवाँ से कुछ मोटे और अधिक गोल होते हैं। तुष सहित कँगनी का वर्ण पीला होता है एवं कँगनी के दाने का वर्ण ईषत् पीत होता है । कँगनी के श्राटे का स्वाद मीठा होता है, भूसी का रंग सफेदी मायल होता है । यह अत्यंत कोमल होती है और शीघ्र दानेसे पृथक नहीं होती । सौ तोले कँगनी में ७३ तोले श्राटा और प्रायः तीन तोले तेल निकलता है । 1 मन प्रतिबीघा के हिसाब से कंगनी होती I इसकी बाल में छोटे २ पीले २ घने रोएँ होते हैं । यह दाना चिड़ियों को बहुत खिलाया जाता है । कँगनी के पुराने चावल रोगी को पथ्य की तरह दिये जाते हैं । कँगनी के भेद — सुश्रुत में कँगनी चार प्रकार की लिखी है । कहा है कृष्णा रक्ताश्च पीताश्च श्वेताश्वव प्रियंगवः ।

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