Book Title: Aayurvediya Kosh Part 03
Author(s): Ramjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
Publisher: Vishveshvar Dayaluji Vaidyaraj

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Page 669
________________ २४०१ कहरुवी रियाजुल छादविया नामक ग्रन्थ में यूसफी कहता है कि कहरुवा में कडुग्राहट का अभाव होता है और यह गरम किया हुआ घास को पकड़ लेता है । कहते हैं कि किसी अपने वस्त्र से इतिहास - ईसवी सन् से प्रायः ७०० वर्ष पूर्व थैलस नामी एक हकीम हुआ है जिसने यह बतलाता कि यदि कहरुबाको किसी चीज से घिसें तो वह गरम हो जाता है। उक्त श्रवस्था में पक्षियों के पर और कतिपय अन्य हलकी हलकी चीजें उसकी ओर खिंच श्राती हैं। समय यूनानी देशीय ललनायें इसे तृणादि झाड़ने के काम में लाती थीं। प्लाइनी ने कहरुवा और उसके गुण धर्म के विषय में एक वृहद् ग्रन्थ का निर्माण किया और उसमें उसने विद्युत् शक्ति का चुम्बक के गुण-धर्म से सामंजस्य दिखलाया । चुम्बक - मिकनातीस के गुण से उस काल में प्रायः सभी लोग परिचित थे। विलियम गिलबर्ट महाराज्ञी एलीजबथ के काल का राजकीय वैद्य था । उसने यह जानने के लिये अनेक वस्तु ले लेकर परीक्षण करना प्रारम्भ किया कि श्राया उनमें घर्षण द्वारा कहरुबाई शक्ति प्रादभूत होती है अथवा नहीं। अनेक परीक्षणों के उपरांत अंततः वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि गोधूम, राजिका, मोम, जवाहिर रत्न, खनिज लवण और कई वस्तुएं हरुका सा गुण धर्म रखती हैं पाषाण, मृत्तिका, धात्विक तरल द्रव्यों तथा धूम को अपनी श्रोर श्रीकृष्ट करती हैं। अस्तु, अब गिलबर्ट को इस बात की श्रावश्यकता हुई कि उक्त श्राकर्षण कारिणी शक्ति का कोई नाम रखें जिसमें वह भविष्य में भी उक्त संज्ञा से अभि हित होती रहे। क्योंकि सर्व प्रथम कहरुवा से ही उक्त शक्ति का प्रकाश हुआ और यूनानी भाषा एलेक्ट्रोन कहते हैं । अतः उसने उक्त शक्ति का नाम एलेक्ट्रिसिटी रख दिया । गुण, धर्म, प्रयोग यूनानी मतानुसार प्रकृति - शेख के अनुसार यह किंचित् उष्ण और द्वितीय कक्षा में रूक्ष है । परन्तु अपेक्षाकृत अधिक समीचीन यह है कि यह शीतल एवं रूक्ष ८१ फा० कह है, जैसा कि इब्न उमरान और साहब कामिल का कथन है । शेख की एक पुस्तका में इसके प्रथम कक्षा में उष्ण धोर द्वितीय कक्षा में रूक्ष होने का भी उल्लेख मिलता है। कोई कोई कहते हैं कि यह समशीतोष्ण और द्वितीय कक्षा में रूक्ष है। किसी किसी के मत से प्रथम कक्षा में शीतल है । परन्तु इससे कोई कोई इसे द्वितीय कक्षा में रूक्ष लिखते हैं । हानिकत्तों - शिर मौर श्राबाज़ को हानिकारक है । इसकी अधिकता शिरःशूल उत्पन्न करती है । दर्पन - शिर तथा शिरःशूल के लिये बनफशा और श्रावाज के लिये बिहीदाने का लुबाब । प्रतिनिधि - संदरूस, द्विगुण गिले श्ररमनी, दो-तिहाई तज - सलोखा, श्रर्द्ध भाग, भृष्ट इसबगोल, सम भाग या द्विगुण वंशलोचन और मनोल्लास के लिये मुक्का और ताऊन के लिये प्रवाल । मात्रा - २ | माशे । गुण, कर्म, प्रयोग - अपनी स्तम्भन कारिणी शक्ति से यह रक्त निष्ठीवन और रक्तस्त्र ति को व रुद्ध करता है । यह हृदय को शक्ति प्रदान करता है; क्योंकि इसमें हृदय को शक्ति प्रदान करने का प्रबल धर्म - खासियत निहित है । और इससे रूह में जिस प्रकाश उज्ज्वलता और दृढ़ता का प्रादुर्भाव होता है वह भी उक्त खासियत की साहाय्यभूत होती है । यह श्रौष्य विशिष्ट स्वफकान को लाभ पहुँचाता है, क्योंकि इससे प्रकृति - साम्य उपस्थित होता है और हृदय को शक्ति प्राप्त होती है । अपनी धारक शक्ति के कारण यह संग्रहणी और प्रवाहिका - पेचिस को बन्द करता है । यह चित्त को प्रफुल्लित करता और हृदय को शक्ति प्रदान करता है तथा वाह्यान्तरिक समस्तांगों द्वारा श्रतिप्रवृत्त शोणित का स्थापन करता है 1 पुन: चाहे वह मुख से आता हो वा मल मार्ग से, अर्श द्वारा रक्तस्त्र त हो, या रक्कमूत्रता हो । उक्त समस्त प्रकार के रक्तस्रावों को कहरुवा गुणकारी है । यह नकसीर को भी लाभ पहुँचाता है । यह नेत्ररोगों को उपकारी है । खफकान, वमन, रक्कातिसार, अर्श, श्रामातिसार - पेचिस, श्रामाशय का प्रतिसार, मूत्र की जलन, मूत्रावरोध, और पित्तज श्रामाशयतिसार के निवारण का इसमें विशेष प्रभाव है, शेख के एक ग्रन्थ में ऐसा लेख

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