Book Title: Aayurvediya Kosh Part 03
Author(s): Ramjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
Publisher: Vishveshvar Dayaluji Vaidyaraj

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Page 659
________________ कस्तूरोमग २३६१ कस्तूरीमृग तिब्बत की ओर होता है और कस्मर जाति का | हैं। साल की अन्य ऋतुओं में इससे कस्तूरी की 'मृग काश्मीर, कुल्लू, पित्तो, लाहौल श्रादि की उपलब्धि नहीं होती । जहाँ कस्तूरी मृग रहता है ओर होता है । कस्मर की अपेक्षा एण जाति का वहाँ चातुर्दिक दूर तक उसकी सुगंधि फैली रहती मृग बड़ा और कुछ वर्ण में भूरा श्वेत होता है। है। शिकारी लोग इसो गंध के अनुसरण से 'मृगनाभि' कस्तूरी मृग की जननेन्द्रिय के ठीक अपना शिकार खोजते हैं। सामने, नाभि के पास, उदर देश के भीतर, एक कस्तुरीमृग निपट जंगली एवं भोंड़ा होता है। झिल्लीदार थैली-ग्रंथि वा गाँठ ( Preput- यह संघबद्ध होकर नहीं रहता; किंतु नर-मादा ial follicles ) से निकलती है और सुगंधि प्रायः एक साथ रहते हैं। दिन में हिरन अपने केवल नर हिरन में ही रहती है। यह सुगन्धि को छिपाये रहते हैं । केवल एक बार संध्या समय द्रव्य कस्तूरी मृग के नाभि देश से प्राप्त होता है। और एक बार सूर्योदय के पूर्व पाहार की खोज में इसलिये भारतवर्ष में कस्तूरी के साथ साथ इसे | बाहर निकलते हैं। इनका शिकार सहज नहीं । "मृगनाभि" वा "नाना" भी कहते हैं। यह पार्वत्य प्रदेश में पीछा करने वाले शिकारी कस्तुरी के युवावस्था प्राप्त होने पर उक्त ग्रंथि | कुत्तों को पीछे छोड़कर खूब तीव्र गति से दूर के जीवकोष अन्तः रसस्रावी ग्रंथि सेलों की भाँति निकल जाते हैं। शिकारी कुत्ता उन्हें पकड़ नहीं एक प्रकार के रस का निर्माण करने लग जाते हैं। सकता । यह हिरन वर्ग जहाँ निवास करता है, पहले कस्तूरी का रंग किंचित् लाल और कुछ | वहाँ चारों तरफ सुदृढ़ बाड़ी लगाई जाती है और कुछ काला रहता है । यह जीवित मृग में बहुत | बीच-बीच में उनके यातायात के लिये खाली गीला होता है । किंतु जब मृग मारा जाता है जगह छोड़ देते हैं । प्रत्येक खाली जगह के मुहाने और उसकी नाभि भिन्न करली जाती है, तब वह | पर फंदा लगा रहता है। इन्हीं फंदों पर शिकारी घन होने लगता है और क्रमश: धीरे धीरे कृष्ण लक्ष रखते हैं क्योंकि इस ओर से तनिक भी वर्ण दानेदार पदार्थ के रूप में परिणत होता असावधान रहने पर कस्तूरी की तीव्र गंध से जाता है और कस्तुरी कहलाता है। खिंचकर बड़े-बड़े मांसाहारी जीव इनका सुस्वादु मांस चट कर जाते हैं और फिर वहाँ कुछ भी शेष इन जानवरों की नाभि में कस्तूरी को उपस्थिति नहीं रह जाता है । कस्त्री अधिक हो वा कम, केवल जोड़ खाने की ऋतु (Rutting sea. शिकारी फंदे में फंसे हुए सभी हिरन की हत्या son ) में जबकि इनमें यौवन-स्पृहा जागृत करके मृगनाभि संग्रह करते हैं। परंतु चीनी होती है, पाई जाती है और नि:संदेह यह मादा व्यापारियों के कथनानुसार सर्वोत्कृष्ट प्रकार की को आकर्षित करने के हेतु से ही प्रकृति की ओर कस्तूरी की उपलब्धि फंदे में फंसाये हुये मृगों से से उसे प्राप्त होती है। हिरन में एवं हिरन की नहीं होती है अपितु जोड़ खाने की ऋतु समाप्त हो सहचरी हिरनी में जब यौवन-स्पृहा जागृत होती जानेके उपरांत जब वे मृगअपनी नाभि अपने उठने है, तब हिरन से कस्तरी अधिक परिमाण में बैठनेके निश्चित स्थानों पर ग्रंथि को विदीर्ण करके निकलती है। और वह वर्ष भर में केवल एक तजात सुगंध द्रव्य को भूमि पर बिखेर देते हैं। मास का काल ऐसा है जिसमें उसकी ग्रंथि में उस समय उनका शिकार करके कस्तूरी संग्रहीत कस्तरी वर्तमान होती है। वह काल जाड़े का की जा सकती है। किंतु इस प्रकार की कस्तूरी पूरा जनवरी भर का मास ऐसा है जिसमें मृग की प्राप्ति सुसाध्य नहीं होती है। श्रतएव बाजार जोड़ा खाता है और उसी समय इसकी नाभि में में क्वचित् ही देखी जाती है। अधिक मात्रा में कस्तरी नामक सुगंध द्रव्य हिरन का गोली से शिकार करने पर यद्यपि संचित मिलता है। उपलब्ध कस्तूरी की मात्रा अत्यल्प होती है। पर अस्तु; अधिकाधिक परिमाण में कस्तूरी प्राप्त्यर्थ, उसकी गंध इतमी प्रबल और तीक्ष्ण होती है कि इसी मास में शिकारी लोग मृग का श्राखेट करते बहुत दूर से मालूम की जा सकती है। इस ताजी

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