Book Title: Aayurvediya Kosh Part 03
Author(s): Ramjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
Publisher: Vishveshvar Dayaluji Vaidyaraj

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Page 658
________________ २३१० कस्तूरीभैरव रस अभ्रक भस्म, पाठा, विडंग, नागरमोथा, सोंठ, नेत्रवाला और श्रामला इन्हें समान भाग लेकर पाक के पके हुये पत्तों के रस में एक दिन अच्छी तरह मईन कर तीन रत्तो प्रमाण की गोलियाँ बना लें। गुण तथा उपयोग-विधि-यह सर्वज्वर नाशक है। इसे पाक स्वरस के साथ खाने से विषमज्वर दूर होता है, तथा द्वन्द्वज, भौतिक, कायसंभूत, अभिचारज और शत्रुकृत उबर को भी नष्ट करता है । जीरा, बेल गिरी और मधु के साथ भक्षण करने से प्रामातिसार, संग्रहणी और ज्वरातिसार दूर होता है. और यह कास, प्रमेह, हलीमक, जीर्णज्वर, सततज्वर, नवज्वर, प्राक्षेप (हिष्टीरिया), भौतिक और चातुर्थिक ज्वर को नष्ट करता तथा अग्नि को प्रदीप्त करता है। यह प्रायः सभी ज्वरों में उपयोगी सिद्ध हुआ है। (भै० र०) कस्तूरी भैरव रस (स्वल्प)-संज्ञा पु. [सं० पु.] एक प्रकार का प्रसिद्ध आयुर्वेदीय योग। निर्माण विधि-शुद्ध हिंगुल,शुद्ध विष, टंकण भूना, कोषफल (जायफल ), जावित्री, मिर्च; पीपल और उत्तम शुद्ध कस्तूरी समान भाग लेकर उत्तम विधिवत चूर्ण बनाकर रख लें। मात्रा-१-२ रत्ती। गुण-इसे उचित अनुपान के साथ ग्रहण | करने से दारुण सन्निपात रोग का नाश होता है। (भै० र० ज्वर चि०, र० सा० सं०) कस्तूरी मल्लिका-संज्ञा स्त्री० [सं॰ स्त्री.] मृगनाभि । कस्तूरी । वै. निघ०। (२) एक प्रकार का मल्लिका-पुष्प वृत्त जिसमें से मृगमद वा कस्तुरी की सो गंध आती है । गुण में यह वार्षिका वा बेले के फूल आदि के तुल्य होती है (रा०नि०व०१०) यह दो प्रकार की होती है-एक लता सदृश और दूसरी एरण्ड वृत के समान । दोनों में फल-फूल पाते हैं । पुष्प और फल के बीज में मनोहर गंध रहती है। केश मलने के मसाले में इसका बीज पड़ता है। कस्तूरीमृग-संज्ञा पुं० [सं० पु.] एक प्रकार का हिरन (पार्थिव मृग) जिसकी नाभि से कस्तूरी निकलता है। यह हिंदुस्तान में काश्मोर, नेपाल, । कस्तूरीमृग श्रासाम, भूटान, हिंदुकुश तथा देवदारू के वनों * में और हिमालय के अगम्य शिखरों पर गिजगित्त से आसाम तक ८००० से १२००० फुट की ऊँचाई तक के स्थानों तथा रूस, तिब्बत, चीन के उत्तरी पूर्वी खंड और मध्य एशिया में उत्तर । साइबेरिया तक के हिमाच्छन्न पार्वतीय प्रदेशों : अर्थात् बहुत ठंडे स्थानों में पाया जाता है। सह्यादि पर्वत पर भी कस्तूरी मृग कभी कभी देखे गये हैं। परन्तु अभी तक मंगोलिया, तिब्बत, नेपाल, काशमीर, प्रासाम एवं चीन के अंतर्गत सुरकुटान तथा बैकाल के पार्श्ववर्ती स्थानों में ही कस्तूरीमग से मगनाभि निकालने की प्रथा है। इनमें तिब्बत के मृग की कस्तूरी अच्छी समझी जाती है। ___ यह मृग अपना एक भिन्न ही वंश और जाति रखता है । यह हिरन से कुछ छोटा, डीलडौल में साधारण कुत्ते के बराबर और प्रायः ढाई फुट । ऊँचा होता है। यह बहुत चंचल छलाँग मारने वाला, बड़ा डरपोक भोर निर्जनप्रिय होता है। इसका रंग स्याही मायल धूएँ कासा वा काला होता है जिसके बीच बीच में लाल और नाली चित्तियाँ होती हैं । इसकी सींग सॉफर की तरह होती है और सींग में एक छोटी सी शाखा होती है । दुम प्रायः नहीं होती, केवल थोड़े से बाल दुम की तरह होते हैं। खाल के बाल बारहसिंगे की तरह होते हैं ।कुचलियों की जगह दो सफेद लम्बे हुलाली शकल के दाँत होते हैं जो ठुड्ढीके नीचे तक पहुँच जाते हैं । इसकी टाँग बहुत पतली और सीधी होती है जिससे कभी कभी घुटने का जोड़ दिखाई नहीं पड़ता। जाड़े में जब ऊँचे पहाड़ों पर बरफ पड़ जाती है, तब यह नीचे के प्रदेशों में उतर पाता है। इन्हीं दिनों में इसका शिकार होता है । यह हिमाच्छादित शीत प्रधान प्रदेशों में रहता है । यह अत्यंत उष्ण प्रकृति होता है। अतएव उष्ण प्रधान प्रदेशों में इसका जीवनधारण कठिन होता है। बरफ़ के नीचे जो बारीक बारीक घास जमती है, उसे यह रात में वा संध्या समय चरता है। यह दिन में बाहर नहीं निकलता। इसकी विशेष दो जातियाँ हैं । एक एण और दूसरी कस्मर । एण जाति का मृग प्रायः नैपाल

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