Book Title: Aayurvediya Kosh Part 03
Author(s): Ramjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
Publisher: Vishveshvar Dayaluji Vaidyaraj

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Page 666
________________ कस्सू २३९८ कस्सू अतिरिक्त इससे निर्यास, राल, टैनिक एसिड आदि अवयव वर्त- मान होते हैं। __ यह ( Toenia Solium) कृमिनाशक है। इसके सद्यः प्रस्तुत शीत कषाय की मात्रा १२० से २४० ग्रेन (८ से १६ ग्राम- अाउस से श्राधा पाउंस ) है । यह गर्भपातक भी है। इतिहास-यह एक विदेशीय श्रोषधि है। अतएव अायुर्वेदीय निघंटु ग्रंथों में उक्त ओषधि का उल्लेख नहीं मिलता है। अधुना जब से यूरोप में इस ओषधि को माँग होने लगी है. तब से एबिसिनिया से अदन होकर बंबई में इसका निर्यात होने लगा है। एबिसिनिया (अफरीका ) में स्फीतकृमि निःसरणार्थ उक्त औषधि बहुत प्राचीन काल से उपयोग में आ रही है। परन्तु युरुपीय डॉक्टर ब्रूस ने सन् १७७३ ई० में सर्व प्रथम इस बात का पता लगाया। सन् १८११ ई. में डॉक्टर लेमा ने उक्त ओषधि का स्वरूप वर्णन किया और सन् १८५० ई. में यह यूरुप में | प्रविष्ट हुई तथा सन् १८६४ ई० में ब्रिटिश | फार्मा कोपिया में सम्मत हुई । इसके १५-२० वर्ष पश्चात् संभवतः उक्र ओषधि भारतवर्ष में पहुँची। परंतु वर्तमान काल में बंबई में इसका निर्यात घट रहा है। इससे यह प्रतीत होता है कि यूरुप में इसकी मांग बहुत कम हो रही है। ब्रिटिश फार्माकोपिया से भी अब यह पृथक कर दो गई है। गुण धर्म तथा प्रयोग डीमक-डाक्टर जोन्सन के कथनानुसार इसकी क्रिया इतनी तीव्र होती है कि इससे प्राय: गर्भपात घटित होता है। इतना ही नहीं, अपितु इससे कभी कभी गर्भवती नारियाँ मृत्यु के घाट | भी उतरती हैं। कहते हैं कि इससे कभी कभी कठिन उदरशूज होता है, पर साधारणतया इसकी क्रिया उतनी कष्टप्रद नहीं होती। प्रत्युत इससे थोड़ी मिचली मालूम होकर, प्रथम मलयुक्र और तदुपरांत जलीय मलोत्सर्ग होता है। एरिना के अनुसार उक्त गुण भेद, कालानुसार एतद्गत राल के मात्रा भेद पर निर्भर करता है। स्फीत कृमिनाशक ( Tenia Solium, T. | । bothricephalus) अखिल औषधियों में, से कोई भी औषधी इतनी गुणकारी नहीं होती है। पर शर्त यह है कि फूल ताज़े हों, क्योंकि यह बहुत शीघ्र विकृत हो जाते हैं। साधारणतया इससे कृमि मरे हुये निकलते हैं। ___ एबिसिनिया निवासियों की उपयोग विधि यह है-जल वा मदिरा (Beer) में इसका शीतकषाय । प्रस्तुत करते हैं अथवा ४ से ६ डाम की मात्रा में इसके फूलों के चूर्ण को शहद में मिलाकर प्रातःकाल सेवन कराते हैं और दिन में खाने को कुछ नहीं देते, इससे साधारणतः २-४ घंटे के भीतर बिना दस्त आये और बिना किसी प्रकार की वेदना वा उदरशूल के कृमि निर्गत हो जाते हैं। श्रावट (Anbert) और एङ्गलमैन (Eng. leman) उलिखित उक्त वर्णन से उपयुक वर्णन का खंडन होता है। युरूप एवं हमारे देश में इसका निम्न भाँति प्रस्तुत शीतकषाय व्यवहार किया जाता है। यथा२ ड्राम कस्सू के फूलोंका चूर्ण चार फ्लुइड पाउंस उबलते हुये पानी में डालकर ढंक कर ठंडा होने तक पढ़ा रहने देवें। ठंडा होने पर इसे बिना छाने ही पियें। डॉक्टर क्रॉस ( Krans) के अनुसार २५ ग्राम कस्सू खाली पेट लेमनेड के साथ सेवन करें और उसके एक घण्टा वाद एरण्ड तैल पिलावें, इसका स्वाद और गंध अप्रिय होती है और किसी प्रकार सनाय की चाय के समान होती है। प्रस्त, यह शर्करा घटित दानादार चूर्ण रूप में किसी सुगंधित शीतकषाय के साथ सेवनीय होती है। (फा० ई० १ भ० पृ०५७१) हिटला-अधिक मात्रा में सेवन करने से कभी कभी स्फीत कृमियों ( Tenia Solium) ओर कृमि विशेष (Bothriocep. halus) को नष्ट करता है। सामान्य प्रयुक्त मात्रा में इससे प्रायः विरेक नहीं पाते, पर यह सरल संपर्क द्वारा कृमियों ( Parasites) को नष्ट करता है। चार पाउंस उबलते हुए पानी में २ से ४ दाम कस्सू द्वारा प्रस्तुत शीत कषाय बिना छाने

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