Book Title: Aayurvediya Kosh Part 03
Author(s): Ramjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
Publisher: Vishveshvar Dayaluji Vaidyaraj

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Page 635
________________ 'कसौजा २३६७ 'कसौंजा खजाइनुल अदविया के मतानुसार कसौंदी | के अवयव रक्रविकार नाशक हैं; कंठ रोगों को लाभकारी हैं, वाजीकरण और ग्राही (काबिज़) हैं: अर्श: अत्यधिक मलप्रवृत्ति और कफज वायु (रियाह) को गुणकारी हैं। यदि कोई विषैली वस्तु भक्षण की हो, तो यह तज्जात विष का निवारण करती है। यह दोष वैषम्य मिटाती, ज़हरबाद का नाश करती, और सूजन उतारती है। डेढ़ तोले कसौंदी के पत्तों को, ११ अदद कालीमिचों के साथ सौंफ के अर्क में पीसकर एक सप्ताह पर्यंत जलोदरी को पिलाने से पूर्ण प्रारोग्य लाभ होता है। इससे भूख बढ़ जाती है। किंतु अवसन्नताकारक द्रव्य वर्जित हैं । दद्र, और व्यंग व झाँई पर नीबू के रस में पिसा हुआ इसका प्रलेप गुणकारी है। यह ऐसे नजला को जो मस्तिष्क से कण्ठ की ओर गिरता हो, दूर करती है । इसके पीने से स्वर शुद्ध होता है । इसकी ताजी अधपकी फली भून कर कुछ दिन खाने से कृच्छ श्वास-तंगी श्वास में पाश्चर्यजनक प्रभाव होता है । बिच्छू का विषप्रभाव शेष रह जाने पर, ३.३ माशे इसके बीज कुछ दिन खाने से बड़ा उपकार होता है। उक्त औषधि वृश्चिक विष का श्रगद है। इसकी पत्तियों का रंस श्रॉख में लगाने से रतौंधी दूर होती है। इसकी जड़ की छाल पीसकर बिच्छू के काटे स्थान पर प्रलिप्त करने से तजन्य विष का निवारण होता है। कसौंजी के बीज ३॥ माशे और कालीमिर्च १॥| माशे इनको पीसकर खाने से सर्पविष नाश होता है। कसौंदी के बीज को बारीक पीसकर नेत्र के भीतर लगाने से भी उन प्रभाव होता है । कसोंदी के उपयोग से कास में बहुत उपकार होता है। दाद पर इसकी जड़ कागजी नीबू के रस में पीसकर लगाने से उपकार होता है। नेत्राभिष्यन्द में नेत्रके ऊपर इसके पत्तों की टिकिया बाँधने से लाभ होता है। तीन चार साल पुराने कसौंदी के चुप की जड़ मुख में स्थापित करने से स्वर शुद्ध हो जाता है। इसको | चार कालीमिर्ची के साथ पीसकर कंठमाला पर बाँधना लाभकारी होता है। इससे सत्वर प्रारोग्य लाभ होताहै। दो-तीन पत्ते कसौंदी के, दो काली मिर्च के साथ पीसकर पीने से कामला-यर्कान आराम होजाता है। (ख० अ. ५ खं० पृ० ४४६-५०) नव्यमत आर. एन. खोरी-कासमई का समग्र तुप विरेचक रसायन और कफ निःसारक है, यह योषापस्मार और कुकुरखाँसी में सेव्य है, इसके बीज विरेचक है और शिश्वाक्षेप में बीजचूर्ण गो दुग्ध वा स्त्री-दुग्ध के साथ सेव्य है। मूल विषमज्वर प्रतिषेधक है एवं ज्वर तथा वातशूल ( Neutalgia) रोग में उपयोगित होता है। दद्, कण्डू, विचर्चिका और व्यंग (lityriasis) इत्यादि पर्व प्रकार के चर्म विकारों के लिये इसका समग्र तुप परमहितकारी है। स्फोटक एवं पृष्ठ व्रण वा प्रमेहपिडिका (Carbanclen) में भी इसका प्रलेप करते हैं (मेटीरिया मेडिका आफ इण्डिया --य खं० २०१ पृ.) डीमक-फ्रांस के अफ्रिकन उपनिवेशों में इसका बीज हबशियों का कहवा ( Nevro coffee) नाम से अभिहित होता है। वहाँ तथा पश्चिमी भारतीय द्वीपों में ज्वरघ्न रूप से विशेषतः इसका टिंक्चर (2 to Ozi of Nalaga wine) व्यवहार किया जाता है अमेरिका में रहनेवाले भारतीयगण इसकी जड़ से बने फाँट ( Infusion ) को नाना प्रकार के विषों का अगद मानते हैं। इसके समग्र चुप का काथ योषापस्मार की प्रख्यात औषधी है और यह आक्षेप को दूर करता एवं प्रान्त्रस्थ वायु का उत्सर्ग करता है इसके बीजों को भूनने से तजात विरेचक सत्व नष्ट होजाता है और उनका स्वाद काफ़ी की तरह होता है। गबीना में इसकी जड़ ज्वर प्रतिबंधक रूप से व्यवहार की जाती है। इसका काढ़ा प्रतिदिन प्रातःकाल सेवन किया जाता है । विसर्प और स्थानीय शोथों पर इसकी पत्ती पीसकर लगाई जाती है। दोनों प्रकार की कसौंदी सारक होती है । इसकी पत्ती की मात्रा लगभग ६ मा० के होती है । दो से ६ रत्ती की मात्रा में कसौंदी के बीजों को १ तोला (३ ड्राम)

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