________________
कसौंजा
२३६५
कसौजा कासमोऽग्निदः स्वर्यः स्वादुस्तिक्त त्रिदोष जत् । चक्रदत्त-(१) दद्र किटिभ कुष्ठ में कासमई.
कसोंदी का शाक-अग्निप्रदीपक, स्वर को मूल-कसौदी की जड़ काँजी में पीसकर लेप उत्तम करने वाला, स्वादिष्ट, कड़वा और त्रिदोष- करने से दकिटिम कुष्ठ का नाश होता है। नाशक है।
यथापर्ण-पाके कटुवृष्यमुष्णलघुः श्वासकासारुचिघ्नं । "कासमई क मूलञ्च सौवीरेण च पेषितम् । पुष्पन्तु-श्वासकासघ्नमूद्धवात विनाशनं ।।
द्रु फिटिभ कुष्ठानि जयेदेतत् प्रलेपनात् ॥" (वै. निघ०)
(कुष्ठ-चि.) कसौदी की पत्ती-पाक में चरपरी, वीर्यव
(२) वृश्चिक विषमें कास मई मूल-कसोंदी द्धक, गरम तथा हलकी है और श्वास, कास एवं
की जड़ को चाबकर वृश्चिक दष्ट व्यक्ति की कान अरुचि को दूर करने वाली है । कसौंदी का फूल
में फुत्कार देने से वृश्चिक दंशन ज्वाला प्रशमित श्वास कास नाशक और मूर्द्धगत वायु का विनाश होती है। यथाकरनेवाला है।
"य: कासमई मूलं वदने प्रक्षिप्य कर्णे कासमईदलं रुच्यं वृष्यं कास विषास्रनुत् ।
फुरकारम् । मनुजो दधाति शोघ्र जयति विषं मधुरं कफवातघ्नं पाचनं कण्ठशोधनम् । विशेषत: कासहरं पित्तघ्नं ग्राहकं लघुः।। ..
वृश्चिकानां सः।। (विष चि०) कसौंदी के पत्ते-रुचिकारक, वीर्यवर्द्धक,
वङ्गसेन-वातज श्लीपद में कासमईमूल
कसोंदी की जड़ को गव्यरस में भली भाँति पीस मधुर, कफ वातनाशक, पाचक तथा कंठ शोधक है
कर पीने से वातजश्लीपद शीघ्र नाश होता है। भोर कास, विष एवं रक्तविकार का निवारण करता है। विशेषकर ये कासन, पित्तघ्न, ग्राही
यथाऔर हलके होते हैं।
"कासमद्द शिफाकल्क गव्येनाऽऽज्येन यः द्रव्यनिघण्टु में इसे दस्तावर, शीतल, कफ- पिवेत् । श्लीपदं वातजं तस्य नाशमायाति वातनाशक और विषचिका नाशक लिखा है। सत्वरम्"। (श्लीपद-चि०) मदनपाल के अनुसार इसकी पत्ती उष्ण, वृष्य,
वक्तव्य पाचक और वातनाशक है।
चरक के "दशेमानि" में कासमई का उल्लेख ___ कसौंदी के वैद्यकीय व्यवहार
नहीं है । विमानोक मधुर स्कंध में (८०) चरक-(१) हिक्का तथा श्वास में कास- "कालवत" शब्द पठित हुआ है। सुश्रुत मे मई पत्र-कसोंदी को पत्ती का यूष हिक्का श्चास सुरसादि गण में कासमई पाठ दिया है । चरक निवारक है । यथा
ने शाकवर्ग में तुषा (कासमई) को ग्राही एवं "कासमईक पत्राणां यूष: *। * हिक्का
निदान लिखा है।
युनानी मतानुसारश्वासनिवारण:"। (चि० २१ अ०) (२) कास रोग में कासमई पत्र स्वरस
प्रकृति-उष्ण एवं रूक्ष, मतांतर से उष्ण कसौंदी की पत्ती का रस और घोड़े की लीद
एवं तर, इससे भिन्न इसे कोई कोई समशी(विष्ठा ) का रस मधु के साथ सेवन करने से
तोष्ण-मातदिल बतलाते हैं । पुष्प मातदिल,
जड़ उष्ण एवं तर, बीज तृतीय कक्षा के प्रारंभ में कफज कास निवृत्त हो जाता है । यथा
उष्ण और रूक्ष तथा पत्र द्वितीय कक्षा में उष्ण ' "कासे कासमपत्र स्वरस:-कासमाश्व
और रूत है। स्वाद-तिक एवं तीक्ष्ण वा विद । सक्षौद्राः कफकासघ्नाः ।" हरायँध । हानिकर्ता-उष्ण प्रकृति पालों में
(चि० २२ प्र०)। शिरःशूल उत्पन्न करती है । दर्पघ्न-वूनी