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"करञ्जवीजं मधुसपिषी च । नन्ति त्रयः पित्तममृक च योग:” ( उ० ४५ अ.)
(४) छर्दि वा वमन में करञ्जपत्र-करंज की ... पत्री द्वारा सिद्ध यवागू वमन निवारणार्थ प्रयोग में श्राता है। यथा"पिवेद् यवागूमथवा सिद्धां पत्रैः करञ्जजैः"
(उ०५० अ०) (५) ऊरुस्तम्भ में करञ्जबीज-डहरकरंज के 'बीज और सरसों, दोनों को गोमूत्र में पीसकर
लेप करें। यह ऊरुस्तम्भ रोग में हितकारी है । यथा.. “दिह्याच्च मूत्राढ्य : करञ्जफलसर्षपैः"
(चि०५ अ.)। (६) कुष्ठ में करञ्जतैल-कुष्ठजन्य 'क्षत में डहरकरंज के बीजों का तेल वा सरसों का तेल व्यवहार करें । यथा"झारखं वा सार्षपं वा क्षतेषु । क्षेप्यं तैलं"
(चि०६०) वाग्भट-ग्रन्थिविसमें नक्रमाल त्वक्करंज की छाल को पानी में पीस गुनगुना कर लेप करने से यह शिला को भी भेदन कर सकता है, फिर ग्रंथि विसर्प को विलीन होने में और क्या प्राश्चर्य है। यथा"नक्तमालत्वचा । लेपोभिन्द्याच्छिलामपि" |
(चि०१८ अ.) " नोट-वाग्भट (सू २ अ.) में करंज के दंतधावन और चिरबिल्व शाक (सू० ६ अ. शा. व.)का उल्लेख मिलता है।
चक्रदत्त-(१) पक्वशोथ प्रभेदनार्थ चिरबिल्वमूल-डहर करंज को जड़ की छाल को पीसकर प्रलेप करने से पका फोड़ा फूट जाता है ।
"वहुशः पलाश कुसुम स्वरसैः परिभाविता जयत्यचिरात् । नक्ताह्ववीजवत्तिः कुसुमचर्य हनु चिरजमपि" । (नेत्ररोग-चि०)
बसवराजीयम्-काकण कुष्ठ में करन तैल-करा तैल में चीता और सेंधानमक का चूर्ण मिलाकर लेप करने से काकण नामक कुष्ठ नाश होता है । यथा"तैलं करञ्जबीजोत्थं वह्निसैन्धवगाहितम्। चूर्णितं लेपयेद्धन्ति शीघ्रमेव तु काकणम्।।
(वस• रा० १३ प्र० पृ० २१३) योगरत्नाकर-छर्दिनिवारणार्थ करा बीजकरा की गिरी को कुछ भूनकर टुकड़े टुकड़े करके बार बार खाने से दुःसाध्य छर्दि भी नष्ट · हो जाती है। यथा. "ईषद्धृष्टं करञ्जस्य वीजं खण्डीकृतं पुनः । मुहुमुहुनरो भुक्त्वा छर्दि जयति दुस्तरम् ।।
चरक, सुश्रुत, वाग्भट, वृहनिघण्टु रत्नाकर और वृदमाधव के मतानुसार यह सर्प और बिच्छू के विष में उपयोगी है । परन्तु महस्कर और कायस के मतानुसार इस वनस्पति का प्रत्येक भाग साँप और बिच्छू के विष में निरुपयोगी है।
यूनानी मतानुसार गुणदोषप्रकृति-द्वितीय कक्षा में उष्ण और तृतीय कक्षा में रूक्ष । ___ हानिकर्त्ता-फुफ्फुस और प्रांत्र को । इसके तेल का अतिसेवन हानिकारक है। दर्पघ्नकतीरा।
गुण, कर्म, प्रयोग-यह चक्षुष्य है तथा वातरोग, कण्डू और ज्वरों को दूर करता है। नीम के पत्तों के रस में इसको लकड़ी घिसकर देने से कुष्ठरोग आराम होता है। मूत्रविकार में इसके फूल और पत्ते गुणकारी हैं। ये त्वचा के रोगों को मिटाते और उदरस्थ कृमि तथा विष का निवारण करते हैं। ७ माशे करंज के बीज, और उतनाही मिश्री मिलाकर सेवन करने से दाँतों से खून आना बंद होता है। सर्प और वृश्चिकईश में इनका पीना और लेप करना उपकारक होता है। इसका तेल पीने से उदरज कृमि
- यथा
....“चिरविल्वाग्निकौ।" .
(व्रणशोथ-चि०) (२) नेत्ररोग में करञ्जबीज-डहरकरंजा के 'बीजों की गिरी को, पलास के फूलों के रस की एक बार भावना देकर, उसकी वर्ति ( वत्ती) प्रस्तुत करें। उक्न वत्ति को शुद्ध मधु में घिसकर रोगी की आँख में अजन करने से कुसुम नामक नेत्ररोग नष्ट होता है। यथा