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कर्णतिघर्षक
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कर्णपूर
होती है, तब बहरापन होता है। सुश्रुत में जब | कान के छेद में ठहरा हुआ कफ पिघल जाय तो उलटे मार्गों से गमन करती हुई वायु शब्दवाहिनी । बड़ी वेदना होती है। कान पकना । नाड़ियों में प्राप्त होकर वहीं स्थित हो जाती है, ___ सु० उ० २० अ० । मा० नि० । तब उससे मनुष्य को अनेक प्रकार के शब्द सुनाई | कर्णपात्रक-संज्ञा पु० [ सं० पु.] कान का एक पड़ते हैं। इस रोग को उसमें प्रणाद वा कर्णनाद | बाहरी भाग । कान की लौ। लिखा है। सु० उ० २० अ०। यूनानो हकीम इसे, कर्णपालि-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कान की लौ । ही तनीन वा तनीनुल उजनैन कहते हैं। कान | कर्णपाली । बजना । कानों की झनझनाहट व भनभनाहट । कर्णपाली-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) कान की Tinnitis, Tinnitis aurium.
लौ । कान की लोलक । कान को लोबिया । कान नोट-तनीन अोर दवो के अर्थ भेद के लिये की लहर। (Lobul of ear ) कान की दे. “दवी"।
लौर । कर्णलतिका । (२) सुश्रुत में एक रोग ___ कणंनाद और कणंवेड़ का अर्थभेद-कर्णनाद जो कान की लोलक में होता है । यह पाँच प्रकार
और कणंचवेड़ के अर्थों में यह भेद है कि कर्णनाद का होता है । (१) परिपोट, (२) उत्पात, में अनेक प्रकारके शब्द सुनाई देते हैं,पर कर्णचवेड़ (३) उन्मंथ, (४) दुःखवर्द्धन और (५) में एक ही प्रकार का अर्थात् बाँसुरी का शब्द परिलेही । सु० चि० २१ अ०। विस्तार के लिए सुनाई पड़ता है।
इन्हें यथास्थान देखो। कर्णतिघर्षक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कान साफ | कर्णपाली विवर्धन-संज्ञा पु० [सं० क्री०] कर्णपाखी करने का औजार । कर्णशोधनी।।
___ रोग विशेष । कर्ण नेबू-बं०] करना नोबू ।
कर्णपिप्पली-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] वाग्भट्ट में कर्णपटह-संज्ञा पुं० [सं०] Tym panic me- कान का एक रोग जिसमें कान के छिद्र के भीतर mbrane कान का परदा । प्र. शा०।
एक वा एक से अधिक पीपल की तरह कठोर कर्ण पत्रक-संज्ञा पु० [सं० पु.] कर्णपाली ।
और वेदना रहित माँस के अंकुर पैदा होजाते हैं।
वा० उ०१७ श्र०। __ बाहरी कान का हिस्सा ।
कर्णपुट-संज्ञा पुं॰ [सं०] कान का घेरा । कान का कर्ण पथ-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कर्णच्छिद्र । कान का
छेद। छेद । कणं कुहर।
कर्णपुत्रिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (1) कर्स कर्णपरिपोटक-संज्ञा पुं॰ [सं० वी० ] एक प्रकार
शष्कुली । (२) मोरट लता। का कान में होनेवाला फोड़ा । यह कृष्णारुण और
कर्णपुष्प, कीर्णपुष्प-संज्ञा पु० [सं० पु.] (1) अस्तब्ध होता है। यह परिपोटक वात जन्य
नोली कटसरैया । नीलकिटी । (२) मोरटखाता । होता है।
रा०नि० व.३। कर्णपरिवेहि-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक प्रकार | कर्ण पुष्पिका-संज्ञा स्त्री० [सं० मी.] ऊँटकटारा । का कर्णरोग । यह रक और कफ के विकार से |
उष्ट्रकाण्डी। के। होती और इधर उधर फैलने वाली होती है। यह | कर्ण -पुष्पी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] क्षीरमोरटा । । कर्णपाली में होती है।
क्षीरमुरहरी । पोलुपत्रा । घनमूला । दीर्घमूला । कर्णपाक-संज्ञा पु० [सं० पु. ] कान के छेद का | रा०नि० । नि०शि०।
एक रोग जो पित्त के प्रकोप से वा कान में फोड़ा | कर्णपूर-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (१) बालग्रह । पकने वा जल भर जाने से होता है। इसमें कान २० मा० । (२) सिरिस का पेड़ । शिरीष वृक्ष । पक जाता है जिससे उसमें सड़ांध और केद (३)नीलकमल । नीलोत्पल ।मे०। (४) अशोक (आर्द्रता) होता है और यदि पित्त के तेज से का पेड़ ।रा०नि०व० १०भा० अश्म० चि०।