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कलियारी
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कलियारी
हरर-(अजमेर)। राजाराड-मार० । नेयंगल्ल(सिंहली)।
अन्वर्थ संज्ञायें परिचयज्ञापिका संज्ञार्य-चिह्नमुखी, शक्रपुष्पिका, अग्निशिखा, लांगलिका, नक्कन्दु पुष्पिका पुष्पसोरभा; स्वर्णपुष्पा, अग्निमुखी, अग्निजिह्वा. वह्निशिखा, वह्निवक्ता, प्रभाता और अग्निज्वाला इत्यादि । ज्वालामुखी और इन्द्रपुष्पी।
गुण प्रकाशिका संज्ञायें-विशल्या, गर्भपातिनी, गर्भधातिनो, गर्भनुत्, सारिणी, सारी और व्रणहृत् और हनन ।
टिप्पणी-दक्षिण भारतीय चिकित्सकगण तथा ओषध-विक्रेता यह मानते हैं कि गुणधर्म में इसकी जड़ प्रायः वत्सनाभ की जड़ के समान होती है,इसलिये वहाँ इसे "नाट-का-बच्छनाग” 'अडवि नाभि" श्रादि संज्ञाओं से अभिहित करते हैं। और इसी कारण कभी कभी जान बूझकर वास्तविक वत्सनाभ मूल की जगह इसका व्यवहार किया जाता है अथवा उसके साथ इसका मिश्रण किया जाता है, यद्यपि इनके भौतिक लक्षणों में महान अंतर है। किसी किसी ने इसकी बंगला संज्ञा "ईशलांगला" लिखो है । परन्तु ईशलांगला ईश्वरमूल है, कलिहारी नहीं-जो एक भिन्न उद्भिद है। मराठो और गुजराती में इसे "कललावी" और पंजाबी में "कलीसर" कहते हैं । किसो किसी ने इसकी अरबी संज्ञा "खानिल कल्ब' एवं 'कातिलुल कल्ब" लिखी है ।पर उक्त संज्ञाओं का प्रयोग वस्तुतः "कुचले" के लिये होता है।
राजमार्तण्ड नामक ग्रंथ में लिखा है कि कलिहारी के कंद को पानी में पीसकर चुपड़ने से बहुत देर का घुसा हुआ अस्त्र भी घाव में से आसानी से बाहर निकाला जा सकता है। जंगलनो जड़ी बूटी नामक गुजराती ग्रंथ के रचयिता का कथन है कि इस विषय का अनुभव करने के लिये एक ऐसे मनुष्य के घाव पर जिसके पैर में खीला घुस गया था कलिहारी कंद पीसकर चुपड़ा गया और तुरंत उस खोले को खींच लिया गया । हमें यह देखकर अचम्भा हुआ कि जो खीला क्लोरोफार्म देकर बिना बेहोश किये नहीं निकाला जा सकता था वह इस |
औषधि के प्रताप से आसानी से खींच लिया गया। उसके पश्चात् संधिनी नामक औषधि का पट्टा चढ़ाने से घाव तीन ही दिन में भर गया । ___ उपयुक्त वर्णन से यह सिद्ध होता है कि निघंटुकारों द्वारा दी हुई इसकी विशल्या अर्थात् शल्य दूर करनेवाली संज्ञा अन्वर्थ है। इससे इसके । रामायण में पाई हुई विशल्या होने का भी अनुमान होता है । इसके समर्थन में रामायण में ही एक और प्रमाण मिलता है। रामायण में इसके सम्बन्ध में लिखा है कि यह ओषधि अग्नि की तरह चमकती थी, कलिहारी के फूल भी देखने में अग्नि की तरह चमकते दृष्टिगोचर होते हैं। इसीलिये ग्रंथकारों ने इसका नाम अग्निशिखा भी रखा है। इन बातों को देखते हुये यह अनुमान होता है कि पाया रामायण वर्णित 'विशल्या' नामक ओषधि यह कलिहारी हो तो नहीं है। 'विशल्या' वा विशल्यकरणी शब्द के अंतर्गत इस विषय पर पूर्ण प्रकाश डाला जायगा। कोई कोई पायापान को भी विशल्यकरणी लिखते हैं। इन सबका पूर्ण विवेचन वहीं किया जायगा।
पलाएडु वर्ग (N. O. Liliacee ) उत्पत्ति-स्थान-समग्र भारतवर्ष विशेषतः बंगाल, ब्रह्मा और लंका के वनों एवं सम्पूर्ण भारतखंड के उष्ण प्रदेशों और नीचे जंगलों में कलियारी बहुतायत से होती है। शोभा के लिये यह उद्यानों में भी लगाई जाती है।
रासायनिक संघटन—वार्डेन के परीक्षणानुसार इसकी जड़ में दो प्रकार के राल, एक कषायिन (Tannin) ओर एक प्रकार का तिक्रसत्व, जो यद्यपि वनपलांडु स्थित तिकसार के सर्वथा समान नहीं तो उससे मिलता जुलता एक खत्वहै. पाया जाता है, जिसे सुपर्छन" (Superbine) कहते हैं । यह अत्यन्त विषाक्त होता है (फा० इं. ३ भ०) हिंदी में इसे "लांगलीन' वा "कलिकारीन" कहना चाहिये। इसे विल्ली को खिलाने से वह मर जाती है।
औषधार्थ व्यवहार-कंद । मात्रा-वनौषधि-दर्पणकार इसकी मात्रा (2. २ रत्ती ) लिखते हैं और कहते हैं कि तीक्ष्ण गुण