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की संज्ञा पुं॰ [सं. क्री.] करील का फल ।
करीर फल । टेटी । कचड़ा। करीर-[१] इंद्रायन । हेज़ल । करीरक-संज्ञा पुं० [सं० क्री०] वंशांकुर । बाँस का
करीर का तेल, करील का तेल-संज्ञा पु० [हिं० ____ करोल का तेल ] दे॰ 'करील"। करीरकुण-संज्ञा पुं० [सं० पु.] करील के फलों
का समय । करीर फल काल । (२) करील की
तरकारी। करीरग्रंथिल-संज्ञा पुं० [सं० क्री० ] करीर । करील।
रा०नि०। करीरफल-संज्ञा पुं० [सं० वी०] करील का फल ।।
टेटी । टीट् । कचड़ा । करीर बीज । करीरा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (१) हाथी के
दाँत को जड़। हस्तिदन्तमूल । (२) झींगुर । चीरिका । किंमि पोका। उणा०। (३) मैनसिल । मनः शिला। हे० च०। करीरिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (१) हाथी के
दाँत की जड़ । हस्तिदंतमूल । त्रिका०। (२) . झींगुर । झिल्ली। करीरी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री. (१) हाथी के
दाँत की जड़ । हस्तिदंतमूल (२) झींगुर ।
चीरिका । मे० रत्रिक०। करील-संज्ञा पुं० [सं० करीरः)-ऊसर और कक
रीली भूमि में होनेवाली एक तीक्ष्ण कंटकाकीर्ण झाड़ी जिसमें पत्तियाँ नहीं होती, केवल गहरे हरे रंग की पतली पतली बहुत सी डंठले फूटती हैं राजपूताने और व्रज में करीला बहुत होते हैं। इसकी कोई कोई झाड़ी बीस फुट ऊँची हो जाती है। प्रकांड लघु एवं सीधा होता है और उसका घेरा चार-पाँच और कभी कभी सात-पाठ फुट हो जाता है। तने की छाल अाध इंच मोटी गंभीर धूसर वर्ण की, जिसमें खड़ी-लंबाई के रुख दरारें होती हैं । इसमें असंख्य डालियाँ होती हैं जिसप्ते यह झाड़ी की तरह मालूम पड़ता है। डालियाँ झड़वेरी की तरह के युग्म-कंटकों से व्याप्त होती हैं । पर इसके कांटे उतने मुके हुए नहीं होते और उसकी अपेक्षा अधिक दृढ़ एवं स्थूल
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होते हैं। उन दोनों काटों के बीच में से रंठन निकलती है।। फागुन चैत में इसमें गुलाबी रंग के फूलों के गुच्छे लगते हैं । जेठ में भी कहीं कहीं इसके फूल मिलते हैं पुष्प दंड भी प्रायः काँटों के बीच से ही निकलता है। पुष्प विषमपर्ती, सवृत; तितली स्वरुप एवं गुच्छाकार होते हैं। नरतंतु १४ और नारीतंतु , होता है। इसमें छोटी-बड़ी ५-६ पंखडियाँ होती हैं । मुहीत प्राज़म एवं तालीफ़ शरीफी आदि में जो इसमें तीन पंखडियों-पत्तियों का होना लिखा है, वह सर्वथा मिथ्या है । फूलों के झड़ जाने पर गोल गोल करौंदे के आकार के कभी कभी उससे भी बड़े वा छोटे फल लगते हैं जिन्हें टेटी वा कचड़ा कहते हैं। ये फल जेठ और असाढ़ में पक जाते हैं। प्रारंभ में ये हरे रंग के होते हैं। जब तक ये कच्चे और चने के दाने के बराबर रहते हैं, इनमें तीक्ष्णता बहुत ही कम होती है, बल्कि ये किसी भाँति फीके मालूम होते हैं, पर ज्यों ज्यों ये बढ़ते जाते हैं, इनकी तीक्ष्णता भी उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। परंतु यह तीक्ष्णता अप्रिय नहीं होती । (फलों के भीतर ज्वार के दानों की तरह बीज भरे होते हैं।) बड़ा हो जाने पर फल का कुछ भाग ऊदा हो जाता है । कोई श्वेताभ हलके हरे और कोई गहरे हरे होते हैं। ऊपर के छिलके का भीतरी पृष्ठ हरा और बीज तथा भीतर का गूदा पीला होता है । बीजों को चाबने से प्रथम किंचित् कडू पाहट और कषायपन मालूम होकर, थोड़ी देर बाद मुखमें प्रदाह उत्पन्न हो जाता है। पकने पर ये पहिले लाल फिर काले पड़ जाते हैं। सूखने पर यह भूरे ख़ाकी हो जाते हैं और मारवाड़ी में ढालौन कहलाते हैं। करील के होर की लकड़ी बहुत मजबूत होती है और उससे कई तरह के हलके असबाब बनते हैं। इसके रेशे से रस्सियाँ बटी जाती हैं और जाल बुने जाते हैं। इसकी लकड़ी कड़बी होती है और इसमें दीमक नहीं लगती इस कारण यह मूल्यवान् समझी जाती है। इसकी हरी डालियाँ मसाल की तरह जलती हैं। कविता में भी करील का यथेष्ट उल्लेख मिलता है। मालती इस पर भ्रमर को