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ककंटक
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कर्कटशृंगी
एक प्रकार की ककड़ी। बालुकी । (४) सेमल ककेटक सन्निपात-संज्ञापु० [सं० पुलक्षण का फल । शाल्मली फल । मे० टत्रिक । (५) जहाँवात पित्त और कफ-मध्य. क्षीणोर अधिकहो. केकड़ा । कुलीरक । (६) समुद्री केकड़ा । (७) वहाँ अपने २ रूप ओर शक्रि से जीभ का टेढ़ापन, एक प्रकार का सन्निपात ज्वर । कर्कटक सन्निपात । कोरता, कंठ का गूजना, पालस्य, मुख का महादे० "कर्कटक" (८) कमल को मोटी जड़ । वर जैसा रंगा होना, गले में काँटों का पड़ना, कंठ पद्मकंद । भसीड़ । जटा० । (१) बेल का पेड़ । अोठ और तालू का सूखना, अन्तर्दाह, गुदा का रस० र० बालचिः। (१०) काठ श्रामले का निकल आना, वाणी की भ्रष्टता, दृष्टि का रुकना, पेड़ । छोटा आँवला।
कफ मिश्रित रुधिर का कठिनता से बार २ » कना पो०-कर्क, सुदधात्री, क्षुद्रामलक संज्ञक, तंद्रा, श्वास, खाँसी, इनका नित्य प्रति बढ़ना, कर्कफल | रा० । (११) गोखुरू ।गोचुर । (१२) बुरे २ मनोरथों का उत्पन्न होना, मन में ग्लानि, काकड़ासींगो। कर्कट,ग । च० द० वा. व्या० दोनों पसलियाँ तीर से विंधी सी हों, कफ खींचने एकादश शतिक महाप्रसारिणोतल । (१३) पर भी हृदय से न निकलना, पसलियों में चोट लोको । घीया । (१४) एक प्रकार का साँप । सा लगना, तथा वाणों से पीड़ित और निरन्तर (१५) एक रोग | Cancer यह अबु दक्षत भेदन सा होना इत्यादि लक्षण होते हैं। रोग असाध्य होता है। (१६) काँटा । (१७) (योग त.)
कील । कीलक । कर्कटक-संज्ञा पुं॰ [सं० वी० ] (१) कांडभग्न
| कर्कटदास्थि-संज्ञा स्त्री० [सं० को० ] केकड़े की नासक अस्थिभंग का वह भेद जिसमें हड़ी बीच से
हड्डी । कुजीरकास्थि । टूट जाती है और उसके दोनों छोर उभरे हुये गाँठ | कर्कटकनी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] दारुहरिद्रा । की भाँति होते हैं । इसका प्राकार केकड़े( कर्कट) दारुहल्दी । का सा होता है, इसलिये इसे कर्कटक कहते हैं। कर्कटकी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) काकड़ा. जैसे-"संमूढ़मुभयतोऽस्थिमध्य भग्नं ग्रंथिरिवो- | सींगी ! कर्कटगी। वा० चि० ३ ०। (२) नतं कर्कटकम् ।” सु०नि० १५ अ० दे० 'भग्न'
। केकड़े की स्त्री । केकड़ी। (३) पीतघोषा । (२) तेरह प्रकार के स्थावर कंद विषों में से
(४) दारु हल्दी ।, दारु हरिद्रा । रा०नि० । एक । सु० कल्प २१० दे० "कन्दविष"।
नि. शि। ___ संज्ञा पुं० [सं० पु.] (1) ईख | ऊख ।
कर्कट चरण-संज्ञा पुं॰ [सं० पु० ] केकड़े का पैर रा०नि० व० १४ । (२) केकड़ा। ककट ।
कुलीरक पाद । रस. २० बाल-चि० ।
कर्कटच्छदा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] पीतघोषाः। पा०-अपत्यशत्रु (श०), वहि, कुटीचर
पीले फूल की तरोई । वै० निघः । कड़वी तरोई। (त्रि०), षोड़शांनी, वहिश्चर (हे.); कर्कट,
__ कोशातकी । कोशवती । कर्कोटी । नि०शि० । कुकीर. कुलीरक, सदंशक, पंकवास, तिर्यग्गामी ।।
कर्कटवल्ली-संज्ञा स्त्री [सं० स्त्री.] (१) गजपीपर। गुण-केकड़ा मलमूत्र का निकालने वाला,
गजपिप्पली । (२) शूकशिंबी। केवाँच । कौंछ । संगन और वातपित्त जीतने वाला है। राज० ।
(३) अपामार्ग। वै० निघ० । दे० "केकड़ा" । (३) एक प्रकारको लाल ईख । तानेतु । वै० निघ० २ भ. वा. व्या० एलादि
कर्कट शृङ्गि-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] काकड़ासिङ्गी। तैल । (४) एक प्रकार का पक्षी ।कर्कटे । (१) कर्कटङ्गिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] काकड़ा काठ श्रामला काष्ठामलक । छोटा आँवला । (६) ___ सींगी । कर्कटशृंगी। मद० २०१। . काकड़ासींगी । कर्कटशृंग। भैष० अ० पि. चि० कर्केटशृङ्गी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (1) काकड़ा वृहत् क्षुधावती गुड़िका । एक प्रकार सन्निपात | | सींगी । रा० नि० व०१६ । मद० २०१। भा०
| पू० १ भ० । (२) बड़ी तरोई।। महाघोषा। :
रत्ना .।