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कफोत्सारि गुण के लिये भी इसका सामान्य रूप से व्यवहार होता है।।
इसके बीजों में उड़नशील तैल की उपस्थिति होने से यह सोचा गया कि यह इसी कारण से कास में लाभकारी होगा। इसके उड़न शील तैल का चिकित्सा में उपयोग किया गया। इसका पशुओं की शिराओं में अन्तःक्षेप भी किया गया । परीक्षण से यह पाया गया हैं कि इससे रनचाप कुछ बढ़ा, परंतु यह अस्थायी रूप से । सूक्ष्म वायु नलिकाएँ कुछ ढीली हुई । इस विषय का अध्ययन अभी चालू है। इसके तेल के विषय में अभी बहुत कुछ अध्ययम होने की है।
वृक्ष त्रय की पत्तियों का कल्क व्यवहार किया जाता है। उन रस नारिकेल दुग्ध और चूने के पानी के साथ खूब आलोड़ित करके तथा हठीले रोगों में तुवरक तैल, कपूर भोर गंधक ये द्रव्य और सम्मिलित करके उपयोगित करते हैं। इसके उपयोग से सूज़ाक आराम होता है। कीट | पूर्ण क्षतों पर इसके पत्तों की पुलटिस रखी जाती है । उदराध्मान, अजीण एवं अतिसार में | पत्र-स्वरस उपकारी होता है। कुष्ठ में इसके बीजों की गिरी का लेप लगाते हैं। रक्कार्य में इसके कोमल पत्तों का प्रलेप करते हैं और छाल मुख द्वारा देने से लाभकारी होती है। बहुमूत्र रोग जनित पिपासा प्रशमनार्थ इसके सूखे फूलों का चूर्ण अन्य उपादानों के योग से काथ रूप में व्यवहार्य होता है । पूयमेह और योनिशोथ में इसका अंतः प्रयोग होता है । इसका पुष्प बहुमूत्र औषध की तरह व्यवहार किया जाता है। कूकर खाँसी में इसकी फली कंठ में धारण की जाती है छिलका उतारे हुये करंज के बीजों का चूर्ण कुक्कुर खाँसी की अमोघौषध की भाँति काम में आता है । शिशुओं एवं छोटे बालकों के लिये इसकी मात्रा 1 से २॥ रत्ती तक अवस्थानुसार है। बारह वर्ष से अधिक अवस्था वालों के लिये एक माशा तक इसकी मात्रा है। इसके चूर्ण को काग़ज में लपेट कर नहीं रखना चाहिये, क्योंकि काग़ज इसके तैलांश को सोख लेता है। अधिक समय तक रखने से चूर्ण की उपादेयता नष्ट हो | जाती है। अत एव इसे सदैव ताजा तैयर करना चाहिये। अंडकोष वृद्धि एवं कंठमाला पर करंज की जड़ चावल के धोवन में पीस कर प्रलेप की जाती है। (इं०म०म०पृ०७०५-६) ___ एक प्रकार के अजीर्ण में जिसमें यकृत की क्रिया शिथिल पड़ जाती है कभी कभी जठराग्नि दीपक (Stomachic) और; पित्तरेचक (Cholagogue) रूप से इसके तेल का आभ्यंतरिक प्रयोग होता है । दुर्बलता एवं शक्तिहीनता की दशा में करंज के बीजों का चूर्ण उत्तम ज्वरघ्न एवं बल्य माना जाता है। कास और उस्कटकास (Whooping cough) में |
(२) एक मध्यमाकार का वृक्षाश्रयीविटप वा भूमिस्पष्ट शाखा-प्रशाखाविशिष्ट सुप अथवा कँटीली झाड़ी जिसकी पत्तियाँ सिरिस की पत्तियों से मिलती जुलती कुछ अधिक चौड़ी, अल्पाधिक रोमावृत, एक सींक पर ३-८ जोड़े होती हैं। जोड़े-जोड़े पत्तों के बीच शुद्र तीचणान कण्टक होता है । फूल बड़े पीले पीले वा गंधकी रंग के मंजरी में भरपूर होते है। फूलों के गिर जाने पर कटीली फलियाँ लगती हैं। प्रायः वर्षा ऋतु में इसमें फूल और फलियाँ लगती हैं । शिम्बी वा फलियाँ ढाई तीन अंगुल चौड़ी और छः सात अंगुल लंबी, प्रायः गोल दीर्घ होती हैं । इसके ऊपर का छिलका कड़ा और धन कंटकावृत होता है। इसके सर्वांग में प्रचुर कंटक होने से ही संस्कृत में इसे “कण्टकिकरंज" कहते हैं। एक एक फली में एक से तीन चार तक बेर बराबर प्रायः गोल गोल और 1 से इंच व्यास के दाने होते हैं। ये गहरे धूसर वर्ण के, मशृण और अत्यंत कड़े होते हैं। दानों के छिलके बहुत कड़े मोटे, गहरे खाकी धूएँ के रंग के और भंगुर होते हैं। इसके भीतर एक द्विदलीय ज़र्दी मायिल सफेद गिरी ओर अत्यंत कडुई ( Radicle) होती है । जड़ और जड़ की छाल कडुई नहीं होती । गिरी से तेल भी निकाला जाता है । सूक्ष्म दर्शक द्वारा परीक्षा करने पर गिरी के दलों में लबाब, श्वेतसार, तेल और अंडलाल ( Albumen) विद्यमान होते हैं।
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