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नब्य मत आर० एन० खोरी-डहर करंज का तेल उष्ण (उतेजक ) और कीटनाशक है । इसके अभ्यंग से त्वचा पर न तो क्षोभ वा प्रदाह उत्पन्न होता है और न उस पर किसी प्रकार का दाग पड़ता है। कण्डू (Svabies), चर्मरोग विशेष ( Herpes), इंद्रलुप्त विशेष Porr. ig) capitis) झीप वा व्यंग ( Pityriasis), दद्रु विशेष ( Versicolor), विचचिका ( Psor asis ) प्रभृति तथा अन्यान्य विविध चर्म रोगों में प्रायः समांश नोबू के रस के साथ करंज तैल व्यवहृत होता है। श्रामबात वा गठिया में इसका तेल अभ्यंग रूप से भी काम में आता है । करंज की पत्ती उत्तेजक, श्राध्मानहर और परिवर्तक हैं तथा अजीणं, उदराध्मान एवं कुष्ठ, मृगी और प्लीहयकदृद्धि में भी इसका व्यवहार होता है। इसकी जड़ का रस स्निग्ध और शीतल है तथा पूयमेह (गनोरिया), किन्न क्षत एवं भगंदरजात क्षत शोषणार्थ व्यवहार में आता है। ( मेटिरिया मेडिका ग्राफ इण्डिया-२ य खं० २२५ पृ.)
रीडी ( Rheede)-लिखते हैं कि करंज के पत्रकाथ से अवगाहन करने से श्रामवातिक वेदना प्रशमित होती है। इस हेतु इनका व्यापक रूपेण व्यवहार होता हुआ दिखाई देता है।
ऐन्सली-के अभिमत से कदर्य क्षत शोषणार्थ तथा भगंदर गत क्षत पूरणार्थ डहरकरंज की जड़ का रस व्यवहार किया जाता है। वे इसके तेल एवं कण्डू तथा श्रामवात में इसकी उपयोगिता का भी वर्णन करते है।
गिब्सन-महाशय लिखते हैं-समान भाग नीबू के रस के साथ करंज-तैल को श्रालाड़ित कर मर्दन करें। यह बिविध चर्म रोगों के लिये महौषध है । ( नीबू का रस और करंज तैल को एकत्र आलोड़ित करने से एक प्रकार का उत्कृष्ट पीत वर्ण का अभ्यंगोपयोगी स्नेह प्रस्तुत होता है।) ___ डा० पी० सी० मूतूस्वामी लिखते हैं कि तौर निवासी पूयमेह वा गनोरिया को उत्कृष्ट । औषध मानकर, चूने का पानी एवं नारिकेल दुग्ध
के साथ इसकी जड़ का रस व्यवहार करते हैं, वहां श्राध्मान, अजीर्ण अतिसार रोग में करंज पत्र (पोंगा-इलै -ता.) के उपयोग का भी उल्लेख करते हैं । वे लिखते हैं कि इसका फूल मधुमेह ( Diabetes) रोग में व्यवहृत होता है और .. फलियों की माला कूकरखाँसो प्रतिषेधक रूप से कंठ में धारण की जाती है। डा० बी० एक्स लिखते हैं कि मैंने कूकर-खांसी में इसके बीजों का मुख द्वारा उपयोग किये जाते हुये अवलोकन किया है। कृषक गण चिराग़ जलाने के लिये इसके तेल का व्यवहार करते हैं। (फार्माकोग्राफिया इण्डिका-डीमक, १ खं० ४६६ पृ०)
नादकर्णी-(गुण, प्रभाव) इसकी गिरी से निकाला हुआ तेल शोधक पचननिवारक ( Antiseptic) और उष्ण आरोग्यप्रद गुण विशिष्ट होता है । तेल ही इसका कार्यकारी उपादान प्रतीत होता है, क्योंकि उसे निकाल लेने के उपरांत अवशिष्ट रहा हुआ अंश निष्क्रिय होता है। पत्र, बीज, मूल और तैल पराश्रयी कीटनाशक है; ये प्राणिज और वानस्पतिक दोनों प्रकार के चर्मरोग जात कीटाणुओं को नष्ट करते हैं। वृक्षत्वक् ग्राही ( Astringent) होता है।
आमयिक प्रयोग-चर्मरोगों में त्वचा पर करंज तेल का अभ्यंग करते हैं । कण्डू (Scabies), क्षत, पित्तज त्वग्गत बुद्र दाने ( Herpes ) और तादृश पामादि रोगों में करंज तैल में यशद भस्म (एक प्राउंस तेल में एक ड्राम यशद भस्म ) मिलाकर लगाने से बहुत उपकार हुआ है। श्रामवात (मांसपेशीय वा सर्व संधिजात), विचर्चिका, इन्द्रलुप्त विशेष (Porrigo), (Capitis) और व्यंग वा झाँई (Pityriasis)में समान भाग करंज तैल और नीबू का रस मिलाकर अभ्यंग रूप से सेव्य है। प्रामवात पीड़ित संधियों को इसकी पत्तियों के काढ़े में अवगाहित करते हैं अथवा उससे स्वेदन करते हैं । इसी प्रकार इसके प्रकांड, पन और मूल का स्वरस भी उपकारी होता है । कृमियों को नष्ट करने के लिये करंज के वृक्ष का रस, नीम और निगुण्डी वृक्ष-स्वरस के साथ अथवा उक्त