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मेव वर्द्धित हो जायगी । लवण के साथ मिलाने से इससे लवणात दोष उत्पन्न होता है । कदू पिपासाहर है। क्योंकि इसमें प्रचुरता के साथ जलीयांश होता है। परन्तु अपरिपक्व कद मेदे के लिये रही होता है। क्योंकि कच्चे में पार्थिवांश अधिक और जलीयांश सद्विीभूत होता है ।त० न०। ___ कदू मूत्रल, स्निग्ध, शीतल, एवं अवरोधोद्धाटक है और पेट को मृदु करता है । यह पैत्तिक एवं उष्ण-प्रधान ज्वरों, संग्रहणी (खिलफा) कामला ( यौन ) शुद्ध एवं पैत्तिकं दोषोत्पादन, सरेसाम, उन्माद (हज़ियान) सिर एवं मस्तिष्क की रूक्षता को लाभकारी है। -मुफ० ना० ___ यह प्यास बुझाता, ऊष्म यकृत की ऊष्मा और पित्तजन्य श्राकुलता को दूर करता, सी और तरी पैदा करता, अवरोधोद्धाटन करता अधिक पेशाब लाता, कामला-यर्कान को दूर करता एवं चिरकालानुबंधी सग्रहणी में उपकार करता और पेट को मुलायम करता है । यह उष्ण एवं रूक्ष व्याधियों और गरम वा पित्त के ज्वरों में असीम गुणकारी है । यह कांति प्रदान करताजिला करता है। इसको पकाकर खाने से खन कम बनता है किंतु श्रामाशय से शीघ्र नीचे उतर जाता है अस्तु, यदि हजम होने से पूर्व किसी कारण वश यह विकृत न होजाय, तो इससे दुष्ट दोष उत्पन्न नहीं होता । परन्तु आमाशय में रही दोष से मिलने पर यह विकृति को प्राप्त हो जाता है। हजम से पूर्व या पश्चात् जब किसी वाद्य वा श्राभ्यांतरिक कारण से यह विकृति हो जाता है, तब इससे ख़राब खिल्त-दोष बनता है। किंतु जब लवण या राई से इसकी शुद्धि कर ली जाती है, तव उक्त अवगुण जाता रहता है। एक बात यह भी है कि कह, अकेला मेदे में शीघ्र विकृत हो जाता है और शीघ्र प्रकुपित दोषाभि नुख परिणत हो जाता और विषैला दोष उत्पन्न करता है । इसका हेतु यह है कि इसमें लताफ़त ( मृदुता एवं सूक्ष्मता) है। यदि किसी ऐसी वस्तु के साथ जो दोषानुकूल हो, खाया और पकाया जाय, तो उसकी कैफियत बदल जाती है। किंतु जिन्हें कुलंज-उदरशूल के रोग की |
श्रादत हो, उन्हें इसका खाना उचित नहीं है ।। क्योंकि वायु उत्पन्न करने एवं फोक की पिच्छिलता के कारण यह कुलंज रोग उत्पन्न करता है शीतल प्रकृति वालों में यह अानाह उत्पन्न करता अर्थात् पेट फुलाता और वायु पैा करता है यह - साथ भक्षण की जाने वाजी चीज के तद्वत दोष । उत्पन्न करता है अतः तीक्ष्ण पदार्थ, जैसे राई और मसाला के साथ भक्षण करने से तीक्ष्ण दोष उत्पन्न करता है। और लवणात पदार्थ के साथ भक्षण करने से क्षारीय दोष विस्वाद वा विकसे एवं कषेले पदार्थ के साथ भक्षण करने से संग्राही दोष उत्पन्न होता है, इत्यादि । फिसलानेवाली शनि-कुन्वत इज्लाक के कारण यह उष्ण मलों को निः सारित करता है और इसी कारण आमाशय और प्रांतो को शिथिल एवं मंद करता है तथा दीर्घपाकी है । बृक्क की उष्णता तथा पैत्तिक और रक्त प्रकोप जन्य ज्वरों में इसका व्यवहार उचित है । शीतल प्रकृति वालों के लिये इसका सेवन उचित नहीं। अनिद्रा रोगी को इसके खाने से नींद आने लगती है और शरीर में तरावट पैदा होती है।
पित्त प्रकृति वालों को इसे अनार ( खट्टा) या सुमाक व खट्टे अंगूर के साथ खाथ खाना चाहिये। इसके खाने से शरीर गत फुसियां मिठ जाती हैं। यह वीर्यवर्द्धक है।
यदि यह प्रामाशय से नीचे न उतरे, तो विकृत होकर विष बन जाता है । कद्द की परिणति पित्त की अपेक्षा कफ एवं वायु की ओर अधिकोन्मुखता है। यह इस बात से सिद्ध है कि यह पित्त के जौहर के साथ उतनी मुनासिबत नहीं रखता जितनी कफ के जौहर के साथ रखता है । और भामाशय में यह जिस दोष की उल्वणता पाता है । स्वयं भी उसी में परिणत हो जाता है। इस लिये अधिक हानि होती है। क्योंकि उन दोष अत्यधिक बढ़ जाता है । वात एवं कफ स्वभाव वालोको यह अतिशय हानिप्रद है। क्योंकि उनकी ओर अत्यधिक परिणतिशील होता है या शीघ्र परिवत्यभिमुख होजाता मस्तिष्क जात शोथ और सरसाम को भी लाभ पहुंचाता है। ताजे