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२०६४
कनेर
खिलायें, दूसरे दिन डेढ़ रत्ती, तीसरे दिन दो रत्ती इसी प्रकार प्रति दिन श्राधी रत्ती बढ़ाते हुये | सप्ताह पर्यन्त सेवन करें। अम्ल एवं वादी चीजों से परहेज करना आवश्यक है। रूक्षता प्रतीत | होनेपर गोदुग्ध पान करें । परमेश्वर की दया से नपुंसक भी पुसत्व लाभ करेगा। -गिफ़्ताहुल खजाइन
नव्य मत आर० एन० खोरी-ओलियेण्ड्रीन ( रक्क और श्वेत करवीर का उपादान भूत एक द्रव्य) को पिचकारी द्वारा त्वगभ्यंतर प्रवेश कराने ( Injection ) से नाड़ो स्पन्दन जहाँ एक मिनट में ७५-८० बार होता था, वहाँ घटकर मिनट पीछे १०-१२ वार रह जाता है। इतने पर भी यदि उसे अधिक क्षण तक जारी रखा जाता है, तो इससे हृत्स्पंदन और साथ ही श्वासप्रश्वास भी अवरुद्ध होजाता है। करवीर मूल एवं मूल स्वक् दोनों ही अमोघ मूत्रकारक और स्ट्रोफैन्थायन एवं डिजिटैलीन वत् हृदय वलप्रद है। हृव कल्य बिशेष (Cardiac Systole) और शोथ रोग (Dropsy) में इसका काथ ( Infusion ) व्यवहृत होता है। गर्भपात एवं आत्महत्या के लिये करवीर-मूल प्रायशः व्यवहार किया जाता है । शूलरोग में एवं शिरो बिरेचनार्थ ग्रामवासीगण कनेर को सूखी पत्ती का चूर्ण व्यवहार में लाते हैं । इसकी लकड़ी मूषक विष ( Rats bane) रूप से व्यवहार की जाती है। फिरंग क्षत, शिश्न क्षत और दद्र में इसकी जड़ की छाल का प्रलेप लाभकारी होता है। ( मेटीरिया मेडिका आफ इंडिया-२ य खं०, ३८६ पृ.)
ऐन्सली-कनेर की, जड़ की छाल एवं मधुर गन्धि पत्रों को वैद्यगण प्रबल Repellents (मवाद को लौटाने वाला) मानते हैं और उनका बहिःप्रयोग करते हैं । जड़ भक्षण करने से विषैला प्रभाव करती है। हिन्दू रमणीगण डाह के कारण आत्महत्या के लिए वहुधा इसका प्राय ग्रहण करती हैं। -मेटीरिया इंडिका, २ खं० पृ०२३।
वैट-कनेर के प्रभावकारी सार हृदय के लिये प्रचंड विष है। प्रो०ई० पेलिकन के अनुसार क्योंकि हृदय पर इसका अवसादक वा नैर्बल्यकर (Depressing) प्रभाव होता है, अस्तु इसका डिजिटेलिस के प्रतिनिधि स्वरूप व्यवहार , हो सकता है। -वैट्स डिक्शनरी।
कर्नल बी. डी. वसु-कनेर के सर्वांग, प्रधानतया इसकी जड़ को एतद्देशवासी विषाक्त मानते हैं । इसलिये वे आत्महत्या एवं अन्य प्रकार को हत्या के लिये इसका व्यवहार करते हैं। तथापि तालीफ़ शरीफ़ (पृ. १३४) एवं अन्य भारतीय द्रव्य-गुण-शास्त्र विषयक ग्रंथों में कुष्ठ तथा अन्य व्याधियों में इसको व्यवस्था देखने में श्राती है। ___ के. एम. नादकर्णी--कनेरका सर्वांग विषैला है । इसको जड़ और जड़ की छाल दोनों प्रवल मूत्रल एवं ष्ट्रोफेन्थस और डिजिटेलिनवत् हृदय वलद होती हैं । भोलिएंड्रोन के पिचकारी द्वारा स्वगधोऽन्तः क्षेप करने से नाड़ी-स्पंदन जहाँ प्रति मिनट ७५ या १०० होता था, वहाँ घट कर १. या १२ तक रह जाता है। यदि इसका प्रयोग कुछ समय तक ओर जारी रखा जाता है, तो हृदय का स्पंदन रुक जाता है और साथ ही श्वास प्रश्वास की गति भी अवरुद्ध होजाती है।
यह पौधा दो तरह का होता है-सफेद फूल का और लाल फूल का । गुण धर्म में ये दोनों समान होते हैं। इनमें से सफेद फूलवाले को जड़े जिन्हें बंगाल में 'श्वेत करबी' कहते हैं, अत्यन्त विषैली होती है। इसो भॉति उसको पत्तियाँ, छाले और फूल भो ज़हरोले होते हैं । इसकी छाल किसी प्रकार खाने के काम नहीं पाती। जड़ वाह्य प्रयोग में आती है और इले पानी में पीसकर प्राकुरों पर (Cancers), तथा क्षतों पर एवं कुष्ठ में भी लेप करते हैं। ज्वर रोगी को कान में इसको जड़ बाँधते हैं । इस अभिप्राय के लिये रविवार के दिन इसकी जड़ ग्रहण की जाती है। वृश्चिक-दंश एवं सर्प-दष्ट विशेषतः फुरसा सर्प के काटने पर इसका प्रलेप गुणकारी होता है । शिरोशूल में इसकी जड़ का चूर्ण सिर में मलते हैं। दद् एवं अन्यत्वग् रोगों में मूलत्वक् एवं पत्र का लेप करते हैं। सूजन उतारने के लिये इसको पत्ती