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कपूर
कपूर
२१.६ । लिखी है-"सुमात्रा द्वीप के कर-संग्राहकगण
संग्रह के निमित्त यात्रा करने के पूर्व नाना प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान करते हैं । इसके बाद वे कपूर के पुराने वृक्ष का अन्वेषण कर उसके कांड को बिद्ध करते हैं । और यदि उससे प्रचुर तैल-त्राव होता है, तो इससे उनको उसके भीतर जमे कपूरसांद्रीभूत कपूर होने का निश्चय होजाता है । पुराने और बड़े वृक्षों में जड़ से लेकर १७-१८ फुट ऊपर के भाग तक कपूर होता है । फिर वे वृक्ष को काटकर उसके कार ड और शाखा को खंड २ और बहुधा विभक्त कर चतुरतापूर्वक कपूर का संग्रह करते हैं। एक पेड़ से लगभग ७॥ से अधिक कपूर नहीं प्राप्त होता । संगृहीत कपूर को साफ करने के लिए उसे साबुन के पानी में डुबा कर बार-बारधोते हैं। साफ होजाने पर यह जल में डूब जाता है और देखने में श्वेत; उज्ज्वल, मसूण एवं कुछ-कुछ पारदर्शक होता है। धोने के बाद तीन प्रकार के भिन्न-भिन्न छिद्रों की चलनी से चालकर उक्त कपूर को शिर, उदर और पाद इस प्रकार उक्त तीन श्रेणियों में पृथक करते हैं। पुनः उक्त तीनों प्रकार में से थोड़ा-थोड़ा लेकर एकत्र मिला विक्रयार्थ चीन देश को प्रेषित करते हैं। कपूर की प्राप्ति एवं लक्षण विषयक
__ भ्रमपूर्ण बिचार कवियों का और साधारण गँवारों का विश्वास है कि केले में स्वाती की बूद पड़ने से कपूर उत्पन्न होता है । जायसी ने पद्मावत में लिखा है'पड़े धरनि पर होय कचूरु । पड़े कदलि महं होय कपूरु' किसी-किसी के विचार से यह केले के वहुत पुराने वृक्षोंसे निकलता है । दस्तूरुल्-इत्तिबा | में तो यहाँ तक लिखा है कि वह कपूर जो केले के तने से निकलता है वह अत्यन्त श्वेत होता है।
और उसके बड़े-बड़े चौड़े-चौड़े टुकड़े होते हैं। . और पत्तों से निकला हुआ उससे निर्बल होता है
तथा जड़ से प्राप्त खराब और बालू रेत की तरह होता है। किसो-किसो के बिचारानुसार कतिपय पौधों को नील की चपकियों में डालकर सड़ाने से कपूर प्राप्त होता है, इत्यादि । इस प्रकार बंश- |
लोचन, गोरोचन, श्रादि के संबन्ध में भ्रमकारक बिचार प्रचलित है, जिनका परिहार परम श्राव. श्यकीय है।
आईन अकबरी में उल्लिखित है कि कपूर उड़ाने से साफ और सफेद होजाता है। इन्न बेतार के अनुसार यह लाल और चमकीला होता है और उड़ाने से सफेद हो जाता है । प्राईन अक बरी में लिखा है कि कदाचित् एक किस्म ऐसी भी हो, अर्थात् वह जो वास्तविक कपूर है और संपूर्ण संसार में जिसका व्यवसाय होता है। इससे ज्ञात होता है कि उस समय लेखकको कपूर के वास्तविक रूप का स्पष्ट ज्ञान न था।
कपूर की परीक्षा स्वच्छं भृङ्गारपत्रं लघुतर विशदं तोलने तितकं चेत्। स्वादे शैत्य' सुहृद्यं बहलपरिमला मोदसौरभ्यदायि । नि:स्नेहं हाढय पत्रं शुभतर मिति चेद्राजयोग्य प्रशस्तं । कपूरं चान्यथा चेद्बहुतरमशने स्फोटदायि व्रणाय ।
(रा० नि० १२ व०) अर्थ-भांगरे के पत्तों के समान जिसके छोटे छोटे टुकड़े हों, जो अत्यन्त हलका हो, और तौल में अधिक चढ़े, खानेमें कड़वा लगे, शीतल, हृदय को प्रिय, अत्यन्त सुगंधि की लपट देने वाला, चिकनाई रहित और कठोर-पत्र का हो, ऐसा शुभ कपूर राजाओं के योग्य है। इससे विपरीत प्रायः फोड़े तथा घाव को प्रगट करनेवाला कहा है।
नकली असली कपूर की परीक्षा कपूर को पाले या बरफ में लपेटकर जलाएँ, यदि वह दिया की तरह जले तो असली, वरन् नकलो समझें, इसे गरम रोटी के टुकड़े में रखें, यदि पसीज जाय और नमी पैदा होजाय, तो शुद्ध अन्यथा अशुद्ध जानें, इसके अतिरिक्त यदि इसे भी के ऊपरी भाग में मलने से श्रांख में प्रदाह एवं शीत प्रगट हो और आँख से जल प्रवाहित होने लगे, तो भी शुद्ध जानना चाहिए। हकीम कमालुद्दीन हुसेन शीराजी से उद्धत है कि कपूर को बोतल में भरकर उसे अग्नि पर रक्खें, यदि वह धुआँ बनकर उड़ जाय, तो उसे उत्तम सम