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दोनों के पयायों में पठित हुआ है। पर नाटा करा के अर्थ में ही इसका भूरि प्रयोग दृष्टिगत होता है । कराद्वय शब्द की व्याख्या में सुश्रुत टीकाकार ढल्वण लिखते हैं-"कराद्वयमिति एकचिरविल्वो द्वितीयः कण्टको विटप करनः"
-ढल्वणः (सू० टी० ३८ श्र०) सुश्रुत के मत से चिरबिल्व को नक्रमाल और कण्टकी विटप करा को पूतिक कहते हैं । वाग्भट्ट लिखते हैं-"एकः पूतिकरअश्विरबिल्वाख्यः । द्वितीय नक्रमालाख्यः (वा० सू० १५ १०)" | यद्यपि वाग्भट्ट के उन कथन से यह प्रतीत होता है कि चिरबिल्व ही पूति करा है । पर दूसरे को नक्कमाल लिखकर उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया है कि-करअद्वय से पूति और नकमाल ये दोनों करा ही विवक्षित हैं। इनमें नक्रमाल वृक्ष और पूतिक विटप-करंज है।
यहाँ एक बात और विचारणीय यह है, कि चिरबिल्व शब्द प्रायः सभी प्राचीन,अर्वाचीन पायर्वेदीय ग्रंथों में नक्रमाल और करन के पर्याय स्वरूप पठित हुआ है। परंतु देश में करंज को ही जाति का और उससे सर्वथा मिलता-जुलता एक
और वृक्ष देखा जाताहै, जिसे देशी भाषा में "चिल बिल" कहते हैं और ग्रामीण लोग फोड़ादि बिठाने के लिये इस पर प्रायः इसके पत्र का कल्क बाँधते हैं। इससे यह अनुमान होता है कि उन चिरबिल्व कदाचित् यह उत्तर कथित चिलबिल ही है, जिसे निघंटु कारों ने करंज के पर्यायों में मिलाकर भ्रामक बना दिया है। पूर्ण विवेचन एवं मान्य निर्णय के लिये देखो "चिलबिल"।
उपर्युक वर्णन से एवं सभी प्राचीनार्वाचीन पर देशीय एतद्देशीय एतद्विषयक ग्रंथों के परिशीलन से यह ज्ञात होता है कि पूतिकरंज में काँटे होते हैं और इसके विटप होते हैं। इसी लिये बंगीय लोग इसे नाटा (ठिंगना) करंज कहते | हैं। इसके सिवा राजनिघंटुकार ने लताकरंज के | नाम से एक और कंटकी करंज का पूतिकरंज से | पृथक् उल्लेख किया है। इन दोनों में भेद करने | के लिये हमने उसे 'कंटकीबल्ली करंज' लिखकर उसके पर्यायादि अलग दिये हैं। पर यह ध्यान |
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करन रहे कि यह दोनों एक ही जाति के पौधे के केवल भेद मात्र हैं। अस्तु, हमने इसके गुण-प्रयोगादि एक ही स्थान पर दिये हैं।
धन्वन्तरीय निघंटु में करा ( नक्रमाल) घृतकरंज, उदकीर्य ( षडग्रंथ ) और अङ्गारवल्ली ( महा करंज ) ये चार, राजनघंटु में नक्रमाल, घृतकरज, पूतिकरण, महाकरञ्ज, गुच्छकरअ, रीठाकरज, और लताकरा, ये सात तथा भावप्रकाश में नकमाल, घृतकरंज और उदकोर्य (करंजी) ये तीन प्रकार के करंज का उल्लेख मिलता है। इनमें से पूतिक और लता करंज क्रमशः कंटको विटप और वल्ली करंज हैं तथा शेष वृक्षकरंज । उक्क करंजों में न मालूम क्यों कुछ ऐसे पदार्थों का समावेश किया गया है जो वास्त. व में करंज भेद नहीं, प्रत्युत उससे सर्वथा भित्र जातीय द्रव्य है । जैसे, रीठाकरंज । अस्तु, हमने इसका रीठा' के अंतर्गत पृथक् वर्णन किया है।
प्रागुन करअद्वय अर्थात् सहर और नाटा करंज के अतिरिक्त बंग में ये चार प्रकार के करअ श्रीर प्रसिद्ध हैं-(१)अम्लकरज, (२)विष करा (३) माक्ड़ा करा और (४) गेंटे करन। इनके संस्कृत नाम क्रमशः ये हैं-करमईक (वन तुद्रा कराम्ल करमी), अंगारवल्ली (महाकरंज) मर्कटी ( उदकीर्य) और षड्ग्रन्थ इनमें करमईक करौंदा है, जो करंज से सर्वथा भिन्न है। अतएव इसका 'करौंदा' के अंतर्गत वर्णन किया गया है। शेष के गुण-पर्याय नीचे दिये जाते हैं।
पय्यायकरञ्ज-करः, नक्रमालः, पूतिकः, चिरबिल्वक: (ध० नि०); पूतिपर्णः, वृद्धफलः, रोचनः, प्रकीर्यकः ( राजनिघण्टु में ये नाम अधिक हैं), करञ्जः, नक्रमालः, करजः, चिरबिल्वका (भा.). करअकः-सं० । करंज-हिं० । डहर करंज-बं०।
घृतकरञ्ज-घृतपर्णः, प्रकीर्यः, गौर (ध०नि०) घृतकरंजः, प्रकीर्यः, घृतपर्णकः, स्निग्धपत्रः, तपस्वी, विषारिः, विरोचनः (रा०नि०), घृतपूर्ण करंजः, प्रकीर्यः, पूतिकः, पूतिकरंजः, सोमवल्कः (भा.), स्निग्धशाकः, विरेचनः, वृत्तफलः, रोचनः-सं० । घोरा करंज, डिठोहरी ?-हिं.। धियाकरमचा-बं०।