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कपूरकचरी
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कपूरकचरी
'शेदूरी' कहते हैं । आसाम के पहाड़ी लोग इसकी ____ इसकी जड़ ( Rhizome) में एक पतला पत्तियों को चटाई बनाते हैं । जड़ को प्रायः जलमें पैरेन् कायमा ( parin chyma) पाया श्रौटाकर उसके टुकड़े २ कर सुखाकर रखते हैं। जाता है। जिसकी वहुसंख्यक सेलें वृहद् अंडाकार जिसमें वह कृमि और वायु प्रादि दोष से सुरक्षित श्वेतसारीय कणों से लदी होती है। उनमें से कुछ रहे कचूर की तरह ही इसकी जड़के प्रायः गोला सेजों में एक प्रकार का पीताभ राल और अस्थिर - कार टुकड़े बाज़ार में मिलते हैं । ये टुकड़े 1 से तैल वर्तमान होता है। उपचर्म पिञ्चित, लगभग
॥ ( lines ) मोटे और लगभग दुअनो वा रिक, रनाभ धूसर सेलों की अनेक पक्रियों से चवतो इतने बड़े अत्यन्त श्वेत एवं सुरभियुक्त निर्मित होता है। होते हैं और उनके सिरे पर ललाई लिए भूरे रंग श्वेतसार की अपरिवर्तित अवस्था के कारण ऐसा की छाल लगी होती है। इसका उपयोग उन्हीं विदित होता है कि जड़े धूप में सुखाई नहीं २ स्थलों में होता है, जिनमें कि कचूर का । तो भी यह उसको अपेक्षा अधिक उत्तम ख्याल की पर्या-गन्धपलाशः, स्थूलकः, तिक्रकन्दकः जाती है। किसी-किसी ने क्षुद्र और बृहत् भेद से तापसो, ज्वलनी, हरिद्रा, पत्रकन्दका (ध० नि०) इसे दो प्रकार का लिखा है । डीमक के मत से ये शठी, पलाशी, षड्ग्रंथा. सुव्रता, गंधमूलिका,गंधा क्रमशः भारतीय और चोनो संज्ञा से अभिहित रिका, गंधवधूः, वधूः, पृथुपलाशिका, गंधपलाशी, हुए हैं। उनके वणन के अनुसार ये दोनों प्रकार (भा०) सुगन्धचन्द्रा, सौम्या, सोमसंभवा, काष्ठको कपूरकची बंबई के बाजारों में उपलब्ध होती पलाशिका, सुग्रहांतिका (के० नि०) गधौली, है। इनमें से भारतीय कपूर कचरी के बहुधा वृत्ता- गधराटी, गन्धपलाशिका, गन्धपलासी, गन्धपल्लवा कार चपटे टुकड़े होते हैं । पर कभी २ इसके लंबे गन्धपीता, स्थूलिका-सं० । कपूरकचरी, कापूरटुकड़े भी होते हैं। ये टुकड़े विविध मोटाई के
कचरी, काफूर कचरी, कचरो,कचूरकच, सितरुता ? तथा इंच वा उससे न्यून व्यास के और -हिं० । कपूरचकरी (ली)विलायती कचूर-द०। श्वेत रंग के एवं श्वेतसार परिपूर्ण होते हैं । इसकी शेदूरी-हिमा० । कपूर कचरी-बं० । हेडिकियम् ताजी कटी हुई जड़ में केन्द्र भाग से बहकल भाग स्पिकेटम् Hedychium Spicatum, को प्रथक् करनेवाली एक धुंधली विभाजक रेखा Smith Ham (Root of )-201 आलोकित होती है । प्रत्येक टुकड़े के दोनों सिरे शोमै-किञ्चिलिक-किजङ्ग-ता० । सीम-किञ्चिलिगडलु ललाई लिए भूरे रंग के वल्कल से आच्छादित ते । कपूर-क्रचरी-मरा०, गु० । कपूरकचूर-६०, होते हैं । और उनपर असंख्य क्षतचिह्न (Scars) मरा०, गु०, हिं० । सीर-सुत्ती-बम्ब० । खोर, एवं वृत्ताकार छल्लों ( Rings) के चिह्न पाये कचूर कचु, बनकेला, शेर्री, शाल्वी, साकी, जाते हैं। उनपर जहाँ-तहाँ पतली-पतली जड़े (पण्यमूल)-कपूर कचरी, कचूर-पं० । कचूर (Rootlets ) संलग्न रहती हैं। इसकी कच, कपूरकचरी, वन हल्दी-उ०प० मा०। गंध इंद्रधनुषपुष्पीमूल (Orris root) वत्, टिप्पणी कपूर कचरीकी समूची ( Whenपर उसकी अपेक्षा अधिक ज़ोरदार एवं तीव्र कपूर entire ) जड़ ललाई लिये भूरे रंग की होती गंधमय होती है । खाने में यह कड़ ई, चरपरी और सफेद रंग के गोल गोल चिन्हों से व्याप्त
और तीक्ष्ण सुगंधिमय होतीहै। इससे भिन्न चीनी होती है । इसलिये यह 'सितरुत्ती' वा 'सित-रित्ती' कपूरकचरी भारतीय की अपेक्षा किञ्चिद् वृहत्तर अर्थात् छोटा कुलंजन भेद Alpinia khu श्वेत तर और न्यूनतर चरपरी होती है। छिलका laujan (दे० 'कुलंजल') और इनमें भी अपेक्षाकृत अधिक मसृण और हलके रंग का होता . प्रधानतया छोटा कुलंजन भेद से विशेष समानता है। देखने में यह भारतीय की अपेक्षा अधिक रखती है । परन्तु यह उन दोनों से सर्वथा भिन्न सुन्दर पर गंध में उससे घटिया होती है। . है। तोड़ने पर यह भीतर से उन दोनों की अपेक्षा
सूक्ष्मदर्शक यन्त्र के नीचे रखकर देखने से । अत्यधिक श्वेत, श्वेतसारीय रचनायुक्त (amyl,