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कबूतर
(६) याहू, (७) गिरहबाज़, (८) शीराजी इत्यादि, इसकी बहुत सी जातियाँ होती हैं । शिखा वाले कबूतर भी होते हैं । इनमें भी गोला दो प्रकार के होते हैं । काबुली - रंग के भेद से पाँच प्रकार का होता है । खगतत्ववेत्तानों ने श्राजतक प्रायः तीन सौ से भी अधिक कपोत श्रेणियों का आविष्कार किया है।
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पृथ्वी पर कपोत प्रायः सर्वत्र देख पड़ता है । पर अष्ट्रेलिया और भारतीय महासागर के उपकूलवर्त्ती प्रदेशों में यह अधिक देखने में श्राता है अमेरिका में यथेष्ट कबूतर होनेपर भी वहाँ इनके विभिन्न प्रकार देखने में नहीं श्राते । भारतवर्ष एवं मलयद्वीप में जिस प्रकार इसकी संख्या अधिक है, उसी प्रकार विभिन्न प्रकार की श्रेणी भी देखी जाती है । युरोप और उत्तर एशिया में इसकी संख्या सर्वापेक्षा श्रल्प है ।
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पहले भारतवर्ष में कबूतर के असंख्य भेद रहे । परन्तु श्राजकल की श्रेणियों को देखकर प्राचीन नामों के निर्णय का कोई उपाय नहीं । प्राचीन कवियों के काव्यों में इस बात का उल्लेख पाया जाता है कि उस समय भी भारतवर्ष में कबूतर पाले जाते थे। कबूतर बहुत कोमल प्रकृति का प्राणी है । प्रायः सभी देशों के लोग इसे पवित्र पक्षी मानते हैं । भारतवासी इसे लक्ष्मी का वरपुत्र मानते हैं । बहुतों का यह विश्वास है कि इसे पालने से गृहस्थों के मंगल की वृद्धि होती है, दरिदता का नाश होता है, और लक्ष्मी का दर्शन होता है । मनुष्य के शरीर में इसके पर की वायु लगने से सभी रोग नष्ट होते हैं । इसी से कितने । लोग कबूतर पालते हैं । पक्षियों के द्वारा संवाद भेजने की प्रथा भी यहाँ प्राचीन काल में थी । अस्तु, रामायण महाभारतादि में इसका उल्लेख मिलता है । मुसलमानों के धर्मग्रन्थ में कपोत को "स्वर्गदूत" कहा गया है । पहले अँगरेज भी इसे पवित्र पक्षी ( Holy bird ) समझ श्रादर करते थे।
पर्या० - कपोतः, कलरवः पारावतः ( श्र०) पारापतः, छेद्यः, रक्तलोचनः (रा० ), रक्तदृक् ( के० ) पारावतः, रक्लनेत्रः, नीलांगः, कपोतकः, गृहस्वामी, बरारोहः, घुघुराग ( ध० नि० ), पारावतः, कल
कबूतर
रवः, श्ररुणलोचनः, मदनः, काकुरवः, कामी, रक्रेक्षणः, मदनमोहनः, वाग्विलासी, कंठीरवः, गृहकपो तकः, ( रा० नि० ), पारावतः, कलरवः, कपोतः, रक्तवर्धनः ( भा० ) झिल्लकण्ठः, पारवतः घरत्रियः, छेद्यकंठः, कलध्वनिः, गृहकपोतः, गृहकुक्कुटः - सं० । कबूतर, परेवा, पायरा - हिं० । पायरा, कइतरबं० । हमाम, सलसलः ( ० ) । कालूज, फ़ा० । कोलम्बा डोमेष्टिका Columba Domestica - ले० । पीजन Pigeon-श्रं० । परेवामरा० । पारुत्रापि ते० । लेटिन भाषा में कपोत जाति को कोलम्बिडी Columbidoe कहते हैं ।
जंगली कबूतर -- वन कपोत, चित्रकंठ, कोकदहन, धूसर, भीषण, धूम्रलोचन, श्रग्निसहाय, गृहनाशन - सं० ।
धर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसार
परावतो गुरुः स्वादुः कषायो रक्तपित्तहा । स्वादुः कषायश्च लघुः कपोतः कफपित्तहा || ( घ० नि० )
परेवा पारावत ) - भारी; मधुर, कसेला और रक्तपित्तनाशक है। कबूतर ( कपोत ) - कसेला, स्वादु, हलका और कफपित्तनाशक है । वर्धनं वीर्य बलयोस्तद्वदेव कपोतजम् । पारावतपलं स्निग्धं मधुरं गुरु शीतलम् । पित्तास्र दानुद्वल्यं तथाऽन्यद्वीर्यवृद्धिदम् ॥ ( रा० नि० )
कबूतर ( कपोत) का मांस-बल वीर्यवद्ध क
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है । परेवा का मांस - स्निग्ध, मधुर, भारी, शीतल रक्तपित्त और दाहनाशक एवं वल्य तथा वीर्य बद्धक है ।
पारावतो गुरुः स्निग्धो रक्तपित्तानिलापहः । संग्राही शीतलस्तज्ज्ञैः कथितो वीर्यवर्द्धनः।। ( भा० पू० ३ भ० ) कबूतर - भारी, स्निग्ध, रक्तपित्तनाशक, वातनाशक, संग्राही, शीतल और वीर्यवर्द्धक है । रसे पाके च स्वादु कषायं विषदच । ( राज० )