________________
करजोड़ी
२१६७
नोट- उपयुक्त योग में + भाग शंखभस्म मिला लेने से यह चोर गुणकारी हो जाता है । कोई कोई करजी भूनकर डालते हैं । - लेखक (२) यह व्रणनाशक और घाव-फोड़े श्रादि के लिये उपयोगी होती है । उभड़ते हुए फोड़े पर करजीरी पीसकर लेप करते हैं ।
( ३ ) श्राँतों के कीड़े और कपTत्सर्ग के लिये
इसका काढ़ा पिलायें । ख० श्र०
( ४ ) कफ की गाँठों को विलीन करने के लिये इसका लेप करें ।
इसको खाने-पीने के काम में कम लाना चाहिये। क्योंकि इससे कभी कभी हानि भी होती है ।
इसका काढ़ा पीने से कफ श्रोर फार दूर होते हैं ।
इसके बीजों में ज़हरीली छूत मिटाने की शक्ति है ।
कालीजीरी के पौधे की मकान में धूनी देने से अथवा इसको पानी में पीसकर मकान में छिड़क देने से कई प्रकार के विषैले कीट भाग जाते हैं ।
इसको और कलौंजी को पीसकर लेप करने से शिरःशूल श्राराम होता है । ( ख़० श्र० ) करजोड़ी - संज्ञा स्त्री० [सं० कर+हिं० जोड़ना ] एक प्रकार की ओषधि जो पारा बाँधने के काम में तो है । हस्तजोड़ो । हत्थाजोड़ो ।
।
करजुरु काय - [ ० ] खजूर का फल । करज्योड़ि -संज्ञा पुं० [सं० पु० ] हस्तज्योड़ि नामक एक प्रकार का महाकंद शाक । हाथजोड़ी । हत्याजोड़ी । हत्थाजूड़ो | रा०नि० ० ७ । ( २ ) काष्ठपाषाण का एक भेद ।
करयोडिकन्द-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] करजोड़ों के
पौधे का कन्द | यह पारे को बाँधनेवाला और वृष्य है । (वश्यकृत् ) होता 'रसबन्धकृवृष्य कृच्च' रा० नि० ० ७ ।
सर्पविष उतारने के लिये इसे अन्य विषघ्न औषधियों के योग से देते हैं ।
यदि रतूस (द्रव) के कारण सम्पूर्ण शरीर सूज जाय, तो इसकी फंकी देवें । पीवयुक्क बड़े फोड़ों पर इसका लेप करते हैं । ज्वरनिवारणार्थ ६सका उपयोग होता है । रसायन
विधि से इसका उपयोग करने से आयु बढ़ती है। और जरा तथा पलित रोग का नाश होता है । पाँच रत्ती से दो-माशे काली जीरी का चूर्ण देने से उदरस्थ कृमि मर कर निर्गत हो जाते हैं । सवा माशा से डेढ़ माशा तक इसकी फंकी देने से बल की वृद्धि होती है ।
इसके भक्षण से उदरशूल मिटता है । इसको ठंडे पानी के साथ घोंट-छानकर पिलाने से पेशाब अधिक श्राता है ।
करऊजयुग्म
करञ्ज, करञ्जक-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( १ ) स्वनामाख्यात वृत्त । वृहत् करंज । डहरकरंज । डिठोहरी, नकमाल | घ० नि० । रा०नि० । श्रा० | दे० " करंज" । ( २ ) करंजुवा । कंजा । कण्ट करेजी । सागरगोटा | भा० । वि० दे० " करंज" २ । (३) भांगरा । भँगरैया । भृङ्गराज । जटा० । ( ४ ) करञ्जफल । सि० यो० वृहदग्निमुखचूर्ण । (५) कञ्जी । ( ६ ) गजपीपल । गजपिप्पली | गण नि० । नि०शि० ।
करञ्ज
'तैल-स 1- संज्ञा पुं० [सं० की ० ] ( १ ) उक्र नाम का एक योग-करंज, चित्रक, चमेली, और कनेर की जड़ इनके कल्क में तेल सिद्ध कर लगाने से इन्द्रलप्त दूर होता है । शा० ६० सं० । ( २ ) करंज के बीज से निकाला हुआ तेल, जो चर्म रोगों की प्रधान श्रोषध है । करंज का तेल । डिठोहरी का तेल | करंज का तैल | वा०| रा० नि० विशेष दे० "करंज" ।
I
करञ्जद्वय - संज्ञा पुं० [सं० नी० ] कंजा व करंजुना और करंज ( डिठोहरी ) अर्थात् विटप वृक्ष करंज द्वय । यथा-वृक्ष विटप करञ्ज “एकश्चिरविल्वः द्वितीयः कण्टकी विटप करञ्जः " । सु० सू० ३८ श्र० ड० श्यामादिः । "करओ देवदारु च" । सि० यो० ३ मा० चि० । एक: पूर्ति करञ्जश्चिर विल्वाख्यः, द्वितीयः नक्त मालाख्यः । यथा - " भूनिम्ब सैय्येक पटोल करअ युग्मम् ।" वा० सू० १५ श्र० श्रारग्वधादिः । वि० दे० "करंज" | करजफल - ( क ) - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] कैथ का पेड़ | कैथ । कपित्थ वृक्ष । रा० नि० व० १७ । कब्ज-युग्म -संज्ञा पुं० [सं० नी० ] क्रंजा व करंजुश्रा और करंज । दे० " करअद्वय" ।