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करभा
करभा - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) वृश्चिकाली । विछाती । रा० नि० व० ६ । ( २ ) युग्मफला । उतरन । इन्दीवरा । रा० नि० । नि०शि० । (३) सुदुरालभा । छोटा धमासा । नि० शि० । करभाण्डका - संज्ञा बी० [सं० स्त्री० ] अङ्गारवल्लिका । करभादनिका, करभादनी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ]
दुरालभा । छोटा धमासा । रा० नि० व० ६ । करभान्तर - संज्ञा स्त्री० [सं०] उक्त नाम की संधि ।
(Intercarpal joint ) श्र० शा० । कर भास्थि - संज्ञा स्त्री० [ स० ] वह हड्डी जो हथेली के पीछे होती है । कराङ्गुलिशलाका । ( Metacarpus )
करभी - संज्ञा स्त्री० [सं० पु० कराभिन् ] [ खी० करभी ] ( १ ) हथिनी । स्वीकरभ । ( २ ) ऊँनी । उष्ट्र । भा०म० ३ भ० सू० वा० चि० । ( ३ ) छोटी मेड़ासिंगी, हस्व मेपशृंगी । ( ४ ) सफेद श्रपराजिता ।
संज्ञा पुं० [सं० पु० ] हाथी । हस्ती । करभीर - संज्ञा पु ं० [सं० पु ं०] सिंह । शेर । श० २० । करभु -संज्ञा पुं० [सं०] रोहिण | करभू-संज्ञा [सं० स्त्री० ] नख । नाखून | करभोदर्या -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] धमनी विशेष |
अ० शा० । ( Vatarcarpal artery.) करभोरु - संज्ञा पु ं० [सं०] हाथी की सूंड़ के ऐसा
जंघा ।
संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] चौड़ी जाँघ बाली श्रौरत । प्रशस्त ऊरूविशिष्टा स्त्री ।
वि० [सं०] जिसकी जाँघ हाथी की सुड़ की सी मोटी हो । जिसकी जाँघ सुन्दर हो । सुंदर जाँघवाली |
करम - संज्ञा पुं० [ श्र० ] अंगूर का पेड़ ।
संज्ञा पु ं० [ बम्ब० ] मुर नाम की गोंद वा पच्छिमी गुग्ग्गुल जो अरब और अफ्रिका से जाती है । इसे " बंदर करम" भी कहते हैं । वोज ।
संज्ञा पुं० [फा०] ( १ ) एक साग । ( २ ) करमकल्ला । कर्नब |
संज्ञा पुं० [देश० ] एक बहुत ऊँचा पेड़ जो तर जगहों में विशेष कर जमुना के पूर्व की ओर हिमालय पर ३००० फुट की ऊँचाई तक पाया
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करमकल्ला
जाता है। हिंदू लोग इसे कदम की एक जाति मानते है | संस्कृत ग्रंथकार इसे "धारा कदम्ब" वा कलम्बक लिखते हैं। इस पेड़ को हलदू वा हरदू भी कहते हैं। (Adina Cordifolia, Hook. f . ) वि० दे० ' कदम" । करमई - संज्ञा स्त्री० [देश० ] कचनार की जाति का एक झाड़ीदार पेड़ जो दक्षिण मलावार आदि प्रांतों में होता है । हिमालय की तराई में गंगा से लेकर आसाम तक तथा बंगाल और बरमा में भी यह पाया जाता है । बंबई में इसकी चरपरी पत्तियां खाई जाती हैं। और जगह भी इसकी कोपलों का साग बनता है ।
करमकल्ला-सं० पुं० [अ० करम + हिं कल्ला ] एक प्रकार की गोभी जिसमें केवल कोमल कोमल पत्तों का बँधा हुआ संपुट होता है। इन पत्तों की तर कारी होती है । यह जाड़े में फूल गोभी के थोड़ा पीछे माघ फागुन में होती है । चैत में पत्ते खुल जाते हैं और उनके बीच से एक डंठल निकलता है, जिसमें सरसों की तरह के फूल और पत्तियाँ लगती हैं। फलियों के भीतर राई के से दाने वा बीज निकलते हैं ।
पय्य० - पत्र गोभी, पात गोभी, मूत्र गोभी, बंद गोभी, बँधी गोभी, करमकल्ला - हिं० । करम, कलम' कलमगिर्द -फ़ा० । कर्नब, वक़लतुल् अन्सार - श्र० | Brassica ले | Gabb age-sto
टिप्पणी- आयुर्वेदीय निघंटु ग्रंथों में करमकल्ले का उल्लेख नहीं पाया जाता । खजाइनुल् श्रद् विया में बुस्तानी, जंगली ओर दरियाई भेद से जो तीन प्रकार के करमकल्ले का निरूपण किया गया है, उनमें बुस्तानी का वर्णन करमकल्ले का न होकर, फूल गोभी का सा जान पड़ता है । इसमें से हर एक के पुनः अनेक उपभेद होते । इसके अनुसार जंगली क़िस्म कडुई होती है । अनार के दानों के रस के साथ पकाने से इसकी उम्र कड़वाहट जाती रहती है। इसमें औषधीय गुण की प्रबलता पाई जाती है। इसके बीज श्वेत मरिच की तरह होते हैं। इसके पत्ते बागी की अपेक्षा श्राध के सफ़ेद पर रोई दार और उत्तर