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करजीरी
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करजीरी
देश में प्रयुक्त यौगिक चूर्ण का एक उपादान सान्याल और घोष के मतानुसार यह वनस्पति भी हैं।
चर्म रोगों में प्रलेप रूप से काम में ली जाती है । रहीडी ( Rheede) के अनुसार प्राध्मान
यह श्वित्र एवं विसर्प रोग की प्रधान औषधिहै। और कास निवारण के लिए मलावार तटपर इनका
छोटा नागपुर की मुडा जाति के लोग इसको शोतकषाय भी व्यवहार किया जाता है। कृसि कुनैन के स्थान में व्यवहार करते हैं। पैरों के पक्षारोगों में प्रयुक्त बीजों के चूर्ण की मात्रा (One घात में इसके पिसे हुथे बीज लेप करने के काम pagoda) दिन में दो बार है। ( मेटिरिया में लिये जाते हैं। इंडिका, २ भ. पृ०५४)
आर. एनचापरा-उक्त औषधने बहुतकाल डिमक-पारी के ज्वरों को रोकने के लिए पूर्व में ही भारत स्थित युरोपियन् चिकित्सकों का ( Antiperiodic ) कोंकण में यह योग ध्यान श्राकृष्ट कियाथा, और उनमें से बहुतोंने इसके प्रचलित है- "कालीजीरी के बीज, चिरायता, बीजोंके चूर्ण का शीत कषाय केचुओंके लिये उत्तम कुटकी, डिकामाली. सेंधानमक और सोंठ इनको कृमिघ्न माना था। कलकत्ता के कारमाइकल अातु बराबर-बराबर लेकर चूर्ण करें। इसको मात्रा ६ रालयमें सञ्चिविष्ट कृमिरोगों (Helminthic माशे की है। पहले ठंडे पानी में लाल किया हुआ | infections) के बहुसंख्यक रोगियों पर खपड़ा वा ईट बुझावें, फिर एक मात्रा उक्न चूर्ण एतद्गत रालचूर्ण २॥से५ रत्ती की मात्रामें प्रयोगित को फाँक कर ऊपर से यह पानी पी जाय। इसी | कराई गई । औषध सेवनसे पूर्वापर मल की सावप्रकार हर प्रातःकाल को यह श्रौषधी सेवन करें। धानतया परीक्षा की गई फलतः यह ज्ञात हुआ कि (फा० इं० २ भ० पृ. २४२)
कृमि विशेष (A scaris) अर्थात् केचुओं पर नादकी-बीज कृमिघ्न, दीपन, (Stom- इसका अत्यल्प प्रभाव होता है। तथापि सूत्रकृमियों achitr), बलकारक, मूत्रकारक, नियत कालिक पर इसका प्रत्यक्षप्रभाव होताहै। जिन अनेकशिशुओं ज्वर निवारक, (Antiperiodic) और को एतज्जात राल-चूर्ण का उपयोग कराया गया, रसायन है । बीज जात चिपचिपा हरातैल मूत्रल उनके नलमें अधिक संख्या में सूत्रकृमि निगर्त हुए और प्रवन्न कृमिघ्न है।
एवं उनके शय्यामूत्र (Nocturnal enureआमयिक प्रयोग-उदर में केचुए पड़ गए sis) और रात में दाँत पीसना आदि प्रायशः हों तो प्रायः कालीजीरो के बीज देने से वे मृता- अत्यंत कष्टप्रद लक्षण प्रशमित हो गये । ( ई० वस्था में निर्गत होजाते हैं । इसकी मात्रा लगभग डू. इं० पृ० ४५०) दो-तीन ड्राम ( मा. १ तो० ) की है। पहले
अन्य प्रयोग बीजोंको कूट-पीसकर उसमें ४-६ डाम मधु मिला (१) काली जीरी २ भाग, सोंठ १ भाग, कर अवलेह ( Electuary ) बना लेते हैं। कालानमक ! भाग-इनका बारीक चूर्ण करें। और उसे दो बराबर भागों में बाँटते हैं। इसमें से मात्रा सेवन विधि-एक माशे से ३ माशे तक गुनगुना एक भाग खिजाकर ऊपर से कोई मृदुसारक पानी के साथ प्रातः सायंकाल भोजनोत्तर सेवन (Aperient) औषध देते हैं। बीजों के
करें। चूर्ण का शीतकषाय (१० से ३० ग्रेन) भी गुण, प्रयोग--यह वातानुलोमक है और उत्तम एवं अव्यर्थ कृमिघ्न है। (ई. रास) ख़ब अपानवायु को शुद्ध करता है । ऐंठन व वेदना केचुओं पर १० से ३० रत्ती की मात्रा में उक्त युक्र पानी की तरह पतला दस्त होता हो, तो
औषध के उपयोग से पूर्ण संतोषप्रद फल प्राप्त इससे उपकार होता है । और तारीफ़ यह कि यह हुश्रा (Ind.Drugs ReportMadras) धारक नहीं है । यह मलमूत्र को पृथक् पृथक् इसे कागजी नीबू के रस में पीसकर लेप करने से करता है और अत्यंत दुधावर्द्धक है । प्रवाहिका में लीख ओर जू आदि केशकीट ( Pediculi) कोष्ठशुद्ध के पश्चात् इसका व्यवहार गुणकारी नष्ट होते हैं । ( ई० मे० मे० ८८४-५)
होता है।