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करजीरी
रजोरी
२१६४ इसके वास्तविक संस्कृत एवं अन्य भाषा के | पाय ऊपर दिये गये हैं।
युनानी निघंटु ग्रन्थों में कालीजीरी नाम से | इसका उल्लेख हुआ है और वाकुची इससे पृथक् वर्णित हुई है । तालीफ़ शरीफ़ी में जो यह लिखा है कि यह स्याह जीरा से दुगुना लंबा, होता है, यह कम भ्रामक नहीं है। भारतीय मुसलमान औषध-विक्रेता इसे पातरीलाल की प्रतिनिधि स्वरूप विक्रय करते हैं । कदाचित् इसी हेतु मुहयुद्दीन शरीफ ने इसे ही वास्तविक (Genuine) प्रातरीलाल समझ लिया हो; क्योंकि बाजारों में उक नाम से प्रायः इसी (काली जीरी) के बीज मिलते हैं। परंतु पातरीलाल इससे सर्वथा एक भिन्न द्रव्य है । विशेष विवरण के लिये 'प्रातरील' देखें। अरबी में इसे कमूने-ब कह सकते हैं।
कालीजीरी वर्ग (N. O. Composite) उत्पत्ति-स्थान-यह समन भारतवर्ष की अनुवर ऊसर उजाड़ भूमि में गाँवों के समीप साधारणतया होती है।
औषधार्थ व्यवहार-फल, शुष्क बीज, पत्र और मूल ।
रासायनिक संघटन-बीजों में राल, वनोंनोन ( Vernonine ) नामक एक क्षारोद, तैल और मैंगानीज रहित भस्म ७ प्रतिशत होते हैं (Dymock, Vol. II., P.242)
कलकत्तास्थित (School of Tropical Medicine) ने इसके रासायनिक संघटन की नानाप्रकार से पुनरपि जाँच की जिसके फलस्वरूप इसके सूखे बीजों में निम्न लिखित तत्व पाये गये। इसके प्रधानतः स्थिर तैल (190) अत्यल्प मात्रा में एक उड़नशील तैल (लगभग ०.०२%)
और एक तिक सत्व वर्तमान पाया गया। इसमें किसी क्षारोद की विद्यमानता सिद्ध नहीं हुई। तिक सत्व जो इसका प्रभावकारी अंश है, सौ भाग बीजों में एक भाग से ऊपर पाया गया । तिनसत्व को विविध प्रकार से शुद्ध करने पर, यह पीत अमूर्त चूर्ण रूप में पाया गया। इसमें नत्रजन |
एवं गंधक का अभाव पाया गया और यह रालाम्बर (Resin Acid ) के स्वभाव का सिद्ध हुआ। (ई० डू. इं० पृ० ४१०)
गुणधर्म तथा प्रयोगआयुर्वेदीय मतानुसारवन्यजोरः कटुः शीतोव्रणहा पञ्चनामकः ।
(ध. नि.) वनजीरः कटुः शीतो* * ।(रा०नि०)
वनजीरा वा करजीरी-चरपरी, शीतल और व्रणनाशक है। अरण्यजीरकञ्चोष्णं तुवरं कटुकं मतम् । स्तम्भवातं कफञ्चैव व्रणश्चैव विनाशयेत्॥
(वै० निघ० द्रव्य० गु०) वनजीरा-उष्ण, कसेला, चरपरा, स्तम्भी, वात कफनाशक और व्रणनाशक है।
चरक और सुशु त के मतानुसार यह सर्प और वृश्चिक दंश में उपकारी है। किंतु कायस महस्कर के मतानुसार यह दोनों ही प्रकार के बिषों पर निरुपयोगी है।
यूनानी मतानुसार. प्रकृति-तृतीय कक्षांत में उष्ण और रूक्ष । .
हानिकर्ता और दर्पघ्न इसका अधिक सेवन वर्जित है, क्यों कि यह दाहक (अक्काल ) है, तथा श्रामाशय और आँतों को हानि पहुंचाती है। बेचैनी ओर मरोड़ पैदा करती है। उक्त अवस्था में.गोदुग्ध पिलावें, मुर्गी का अत्यन्त स्नेहाक्न शोरबा पीने को दें, ताजा आमलों का रस या शीर श्रामला पान करायें। जब कभी इसे देवें और श्रामलों के रस के साथ देखें: क्योंकि यह इसका दर्पघ्न है । यदि ताजा अामले उपलब्ध न हों, तो उनके फांट (खेसादा) के साथ देवें। किसोकिसी ने इसे वृक्क, फुप्फुस, उष्ण प्रकृति एवं प्रांतरावयवों के लिये हानिकर लिखा है। उनके मत से पहाड़ी पुदीना, कतीरा वा गुलरोग़न प्रभृति दर्पघ्न हैं।
प्रतिनिधि-कुटकी ( मतांतर से जीरा, सौंफ, अनीसू अथवा स्याह जीरा आदि)
मात्रा-वैद्यों के अनुसार इसकी साधारण मात्रा ५-६ माशे की है । इसकी एक मात्रा देने के चार-पाँच घंटे उपरांत पुनः दसरी मात्रा देकर