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— कबूतर
कबूतर कपोतो वृंहणो बल्यो वातपित्त विनाशनः । । दर्पघ्न-सिरका और धनिया तथा अन्य तर्पण: शुक्रजननो हितो नृणां गुणप्रदः ॥
शीतल पदार्थ। तथा पारावतो ज्ञयो वातश्लेष्म करो गुरुः ।
गुण, कर्म, प्रयोग-इसका मांस फ़ालिज(अत्रि० २१ श्र०)
लकवा, कंप, सुन्नता, जलोदर और अंग-शैथिल्य
में लाभकारी है। यह शरीर को परिवहित करता कपोतमांसं पाण्डौ वय
और शुद्ध शोणित एवं वीर्य उत्पन्न करता है तथा (च० द. पांडु चि. योगराज )
वृक्क को शकिप्रद और वाजीकरण है। शीतल कबूतर-रस और पाक में मधुर, कसेला और
प्रकृति वालों के लिये इसका मांस रस गुणकारी विशद है । कबूतर वृहण, वल्य, वातपित्तनाशक
है। इसको भूनकर सूखा खाना वर्जित है। इसका तर्पण शुक्रजनक और मनुष्यों के लिये हितकारी
ताजा संगदाना झिल्ली आदि से साफ करके खाने है। पारावत ( परेवा) वातकफकारक और भारी
से सर्प-विष में उपकार होता है। इसका रक्त मस्तक है। पांडु रोग में कबूतर का मांस वर्जित है।
पर लगाने से नकसीर आराम होता है। इसका पारावत
गरमा गरम खून नेत्र में लगाने से नेत्रक्षत, अर्म, विपाके मधुरं गुरुच । सु० सू० ४६ अ०। रात्र्यंध्य आदि नेत्र रोग पाराम होते हैं। कबूतर
कपोत मांस पाक में मीठा और भारी है। सुश्रुत के अंडे बहुत उष्ण एवं रूक्ष है । कच्चे अंडे पीने के अनुसार कपोतविष्ठा व्रणदारण है।
से वक्ष की कर्कशता दूर होती है। कपोलों का महर्षि चरक के मत से कपोत का मांस कसेला, रंग निखरता है। बालकों को इसे शहद में मिलामधुर, शीतल और रक्तपित्त नाशक है। हारीत इसे कर खिलाने से वे शीघ्र बोलने लगते हैं । कबूतरों वृंहण, बलकर; वातपित्तनाशक, तृप्तिकर, शुक्र- के रहने की जगह यदि शीतला का रोगी निवास वर्धक रुचिकर और मानव को हितकर बताते हैं । करे, तो उसके प्रभाव से वह श्रारोग्य लाभ करे। सुश्रुत और वाग्भट के मत से काले कबूतर का कबूतरों को गृह में रखना सुखशांति का कारण मांस भारी, लवणयुक्त, स्वादु और सर्वदोषकारक बनता है। इससे प्लेगादि मरक-रोग-भय एवं होता है।
दूषित वायु का निवारण होता है । बिच्छू के दंश वैद्यक में कबूतर के व्यवहार
स्थल पर कबूतर की गरमा गरम बीट बाँधने से यक्ष्मा नाशार्थ कपोत मांस-कबूतर का मांस बिष की शांति होती है। पौने दो माशे जंगली सूरज की किरणों से सुखाकर, हर दिन खाने से | कबूतर की बीट पीसकर रात्रि को पानी में तर अथवा उसमें घो और शहद मिलाकर चाटने से करके पदि स्त्री प्रातःकाल वह पानी पी लेवे, तो अत्यंत बढ़ा हुआ राजयक्ष्मा भी नाश हो जाता एकही दिनमें या अधिकसे अधिक तीन दिनमेंबंध्या है। यथा
हो जायगी। इसी प्रकार माशा भर बीट चीनी के सशोषितं सूर्य कहि मासं पारावतं यः
साथ खाने से भी तीन दिन में बंध्यत्व प्राप्त होता प्रतिघस्रमत्ति । सपिमधुभ्यां विलिहन्नरो--
है। इब्तज़हर के कथनानुसार कबूतर की बीट
श्राटे में मिलाकर खिलाने से प्राणी यमलोक को वा निहन्ति . यक्ष्माणमति प्रगल्भम् ।।
सिधारता है। इसकी बोट जौ के आटे और क़तरान युनानी मतानुसार
के साथ मलहम की भाँति बनाकर तीसो के वस्त्रप्रकृति-पालतू की अपेक्षा जंगली कबूतर
खंड पर लेप करके श्वित्र पर चिपका देवें ओर अधिक उष्ण द्वितीय कक्षांत में और प्रथम कक्षा
तीसरे दिन उसे हटा देवें। इसी तरह कई बार में रूक्ष है । कपोत विष्ठा वा बीट तृतीय कक्षा
करने से श्राराम होता है। १०॥ माशे कपोतविष्ठा पर्यंत उष्ण और रूक्ष है।
७ माशे दालचीनी के साथ भक्षण करने से पथरी हानिकर्ता-इसका मांस उष्ण प्रकृति को | टूट जाती है। यदि उसकी पिंडली (सान ) घी हानिप्रद है।
- हड्डी जलाकर स्त्री अपनो योनि में धारण करे, तो