________________
कर्पूरकचरी
aceous in struture ), सुरभियुक्र, किंचिद् उष्ण एवं सुगंधास्वादयुक्त होती है, परन्तु मरिचवत् वा चरपरी नहीं होती, गंध, श्रास्वाद, आभ्यंतरिक वर्ण और गुणधर्म आदि में यह कचूर Long zedoary Curcuma Lerumbet of Ronburgh ) के समान होती है, अस्तु, इसकी विलायती कचूर, शीमै किञ्चिलिक्विज़ङ्ग,
र सीम-किञ्चिलि गड्डलु प्रभृति देशी संज्ञायें जिनका अर्थ विदेशी कचूर है, अन्वर्थक हैं ।
किसी किसी ग्रंथ में काफूरकचरी जो कपूरकचरी का ही एक पर्याय है, 'सित्तरित्ती' और 'सुतरुत्ती' संज्ञा के पर्याय स्वरूप उल्लिखित है, जो सर्वथा भ्रमात्मक है, क्योंकि ये छोटा कुलंजन की तामिल संज्ञायें हैं जो कपूरकचरी से एक भिन्न जड़ होती है ।
२१२७
श्रायुर्वेदोक शटी वा पृथुपलाशिका अर्थात् नरकचूर कपूरकचरी की ही जाति की, पर इससे भिन्न ओषधि है । राजनिघंटु में गंधपलाशी का उल्लेख नहीं है । राजनिघंटूक गन्धपत्रा वा वन सटी हुश्रा अर्थात् जंगली कचूर ( कचूर भेद ) का हमने गंधाशी से पृथक् तीखुर ( तवचीर) के अंतर्गत वर्णन किया है।
प्राचीन यूनानी ग्रंथों के अध्ययन से यह प्रतीत होता है कि उस समय यह श्रोषधि संदिग्ध हो गई थी । मुहीत श्राज्ञम प्रणेता हकीम मुहम्मद आज़म खाने रमूज़ श्राज़म नामक स्वरचित ग्रंथ के जो संभवतः उनकी सर्व प्रथम रचना है, वमनाधिकार में छर्दि की चिकित्सा लिखी है। उसमें उन्होंने लिखा है कि 'ज़रंबाद' को कूट छानकर गुलाब जल में मिलाकर मूंग के बराबर वटिकाएँ प्रस्तुत करें । और अक्सीर श्राज्ञम में जो उसके बाद की रचना हैं, जरंबाद की जगह कपूर कचरी लिखा है । इसके भी बाद के रचित क़राबादीन आज़म नामक ग्रन्थ में यही कपूरकचरी उल्लिखित है। मुहीत श्राज़म में जो सर्वापेक्षा पीछे की कृति है, यह उल्लिखित है कि जरंबाद की एक किस्म नरकचूर है, जिसको कपूर कचरी भी कहते हैं । फलतः उनके कथनानुसार निम्नलिखित निष्कर्ष निकलता है, यथा - (१) जरंबाद और कपूर कचरी एक वस्तु है, ( २ )
कपूरकचरी
कपूरकचरी जरंबाद का एक भेद है, (३) नरकचूर और कपूरकचरी एक है । पर वस्तुस्थिति इसके सर्वथा विपरीत है अर्थात् उक्त दोनों में मह दन्तर है। नरकचूर हल्दी की तरह होता है और कपूरकचरी के टुकड़े होते हैं। दोनों के गंध और स्वाद में भी अंतर है। इसी प्रकार प्रायः श्रारव्य आदि यूनानी श्रोषधि-कोषों में जरंबाद का कपूरकचरी तथा नरकचूर के अर्थ में भ्रमात्मक प्रयोग किया गया है ऐसा प्रतीत होता है ।
आवा हरिद्रा वर्ग
( N. O. Scitaminece.) उत्पत्ति स्थान - भारतवर्ष के हिमालय (Su btropical Himalaya), कुमाऊँ और नेपाल प्रभृति स्थान और चीन देश में ५००० से १००० फुट की ऊँचाई तक पैदा होती है । श्रायुर्वेदीय ग्रन्थों में लिखा है कि यह एक सुगंधद्रव्य है, जो काश्मीर में गंधपलाशी नाम से प्रसिद्ध है।
. औषधार्थ व्यवहार - कंद
रासायनिक संघट्टन — इसमें ग्ल्युकोसाइड वा सैकरीन मैटर, लबाब ( mucılage ), अल्व्युमिनाइड्स, सैन्द्रियकाम्ल इत्यादि तथा श्वेतसार, आर्द्रता, भस्म, काष्ठोज ( cellulose ) प्रभृति तथा राल, स्थिर तैल ( Fixed oil ) और एक सुगंध - द्रव्य ये वस्तुएँ पाई जाती हैं ।
औषध निर्माण - चूर्ण, काथ, सौन्दर्यवर्द्धक पाद और बीर ।
धर्म
आयुर्वेदीय मतानुसार
कास श्वासहरा सिध्माज्वरं शूलानिलापहा । सटी स्वत्वधोमूला कषाय कटुकासरा ॥ ( ध० नि० ) श्रधोमूला सटी वा कपूर कचरी - कास, श्वास, सिध्म, ( कुष्ट भेद ) ज्वर, शूल और वातनाशक कसेली, चरपरी, दस्तावर और स्वर के लिए हितकारी है।
भवेद्गंध पलाशीतु कषाया ग्राहिणी लघुः । तिक्ता तीक्ष्णाच कटुकानुष्णास्य मलनाशिनी । शोथ कास व्रणश्वास शूलाहध्मग्रहापहा ॥ ( भा० )