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कबाबचीनी
कबाबचीनी
२१४४ पकेलिशेन की रीति से १ पाइन्ट टिंकचर प्रस्तुत करलें।
मात्रा-2 से १ फ्लुइड ड्राम=मिलिग्राम । ३०-६० बूद (से ३.६ घन शतांशमीटर)
कबाबचीनी का तेल प-०
ऑलियम क्युबेबी Oleum cubebee -ले। ऑइल ऑफ क्युबेब्स Oil of cu. bebs -अं० । कबाबचीनी का तेल । रोगन कबाबः।
लक्षण-यह एक उड़नशील तैलहै जो कबाबचीनी से परिस्र त किया जाता है। यह विवर्ण, लघु एवं पीताभ हरित ईषत् हरिताभ पीत वर्ण का तैल है जो स्वाद और गंध में कवाबचीनी के सदृश होता है। श्रापेक्षिक गुरुत्व ०६१० से ०.६३० तक । एक भाग तैल 14 भाग सुरासार (६० प्रतिशत) में विलेय होता है ।
रासायनिक संघटन-नूतन कबाबचीनी द्वारा परिस्र त तैल में टीन्स होती है। पुरानी कबाबचीनी से प्रस्तुत तैल में क्युबेब कैम्फर (संभवतः एक प्रकार का कपूर) होता है।
प्रभाव-उत्तेजक और कृभिशोधक ( Anti Septic) रूपेण इसे श्लैष्मिक कला संबंधिनी व्याधियों में प्रयोजित करते हैं।
मात्रा-५ से २० बूंद-( ०३से १.२ मिलि ग्राम )।
. अन्य योग (१) कवाबचीनी, मुलेठी, पीपल, हड़ का वक्कल और कुलंजन ( Alpina chinansis)इनको बराबर २ लेकर अलग-अलग कूट छान कर एक में मिलावें | जितना यह चर्ण हो, उसमें १५ गुना जल मिलाकर पादावशिष्ट काथ प्रस्तुत करें । इस काढ़े को आधी छटाँक की मात्रा में दिन में ३-४ बार देवें । इसमें शहद मिलाकर अवलेह भी प्रस्तुत कर सकते हैं। यह उग्र एवं चिरकारी कास में परमोपयोगी है। -( The Indian Materia Medica, p. 263) (२) कबाबचीनी, देवदारु, मरोड़फली, प्रत्येक १० मा०, कृष्णभंगराज (काला भांगरा), काली-
मिर्च, अकरकरा, गजबेल, सूरजमुखी के बीज, (Sun Seeds) सन का बीज प्रत्येक ७ ड्राम और गूगुल १२ तोले-इसमें मात्रानुसार शहद मिलाकर प्राध-प्राध तोले की गोलियाँ बनालें । अपस्मार ( Epilepisy ) में एक,. एक गोली दिन में २ बार सेवन करायें। (इलाजुल गुर्वा)
(३) कबाबचीनी ५ भाग, मस्तगी ४; चुना ३, चीना कपूर ३, इलायची ४, सनाय . बन हलदी ( Curcuma Aromatica) ४, पखानबेद (Iris Pseudocorus) ३, जवाखार ४, इन सब को कूट-पीसकर बारीक चूर्ण करलें।
मात्रा-1 से २ ड्राम । यह सूजाक, मूत्रमार्ग गत क्षत वा चिरकारी सूजाक और जनन-मूत्रेन्द्रिय के रोगों में अतीव गुणकारी है । (नादकर्णी)
गुणधर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसार
आयुर्वेद में कबाबचीनीका उल्लेख नहीं मिलता वैद्यक शब्दसिंधु में काबाब शर्करा शब्द आया है, परन्तु संदर्भ नहीं दिया गया है । कङ्कोल जिसका उल्लेख धन्वन्तरीय तथा राजनिघण्टुआदि आयुर्वेदीय निघण्टु-ग्रंथों में पाया है, वह कबाबचीनी का एक भेद है, न कि स्वयं कबाबचीनी । तथापि ये दोनों गुण धर्म में समान हैं । दे० "कङ्कोल" |
वनौषधिदर्पणकार लिखते हैं-"ग्रन्थान्तर में कबाबचीनो सुरप्रिय नाम से उल्लिखित है। तन्मत से कबाबचीनी वायुप्रशमन, श्लेष्मापहारक, अग्निवर्द्धक तथा मूत्रवृद्धिकर है एवं यह औपसर्गिक मेह, शुक्रमेह, श्वेत प्रदर, अर्श और मूत्रकृच्छ, का नाश करती है।" यथाकबाबचीना-सुरप्रियं वृत्तफलं तद्वायुशमनं मतम् श्लेष्मोत्सारण माग्नेयं मूत्रवृद्धिकरं तथा ॥
औपसर्गिकमेहश्च शुक्रमेहं सुदारुणम्। श्वेतप्रदर मासि कृच्छञ्चापि विनाशयेत् ।।
यह कहाँ का पाठ है यह ज्ञात नहीं और न इसका कोई संदर्भ मिला।
यूनानी मतानुसारप्रकृति-कतिपय हकीमों के मत से कबाब. चीनी में ऊष्मा के साथ शैत्यकारक शक्ति भी पाई