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कपूर २११७
कपूर ... गाय के घी में कपूर का महीन चूर्ण मिलाकर लब्ध करता है। आकरोक्त वृष्य योग में भी
उससे क्षत पूरण कर वस्त्र द्वारा बाँध रखने से पाक | ' कपूर का व्यवहार नहीं हुआ है। भावप्रकाश ने एवं व्यथा नहीं होने पाती और क्षत शीघ्र पूरित कपूर को वृष्य लिखा है। हो जाता है। यथा
यूनानी मतानुसार"कपूर पूरितं वद्धं सघृतं संप्ररोहति । प्रकृति-तृतीय कक्षा में शीतल एवं रूत । सद्यः शस्त्रक्षतं पुसा व्यथापाक विवर्जितम्"
डाक्टर इसे गरमी करनेवाला जानते हैं । कतिपय (व्रणशोथ-चि०)
यूनानी चिकित्सा शास्त्रज्ञों की यह धारणा है, कि भावप्रकाश-परिलेही नाम कर्णाली रोग
कपूर में अंशत: उष्मा भी निहित है और वह
इतने परिमाण में है जिसमें उसको मस्तिष्क तक पर कपूर-परिलेही (कान की लौ में होनेवाला एक प्रकार का बहुरसत्रावी क्लेदयुक्त क्षत ) रोग में
पारोहित कर देती है और केवल उसके वाष्प तप्त गोमय की पोटली द्वारा वारम्वार स्वेद देकर
पहुँचाती है । वैद्य उष्ण और रूक्ष मानते हैं। छागमूत्र में कपूर का चूर्ण पीसकर क्षत पर लेप
गीलानी ने मुफ्रिदात क़ानून को शरह में लिखा करें । यथा
है कि वह कर जो विशुद्ध, साफ और असली
होता है और जिसे हिन्दू सुगंध के लिये पान के वहुशो गोमयैस्तप्तैः स्वेदितं परिलोहितम् ।
बीड़े में रखकर खाते हैं और जिसे भीमसेनी कहते घनसारैः समालिम्पेदजामूत्रेण कलिकतैः ।।
हैं, उसके उष्ण एवं रूक्ष होने में कोई संदेह नहीं (कर्णरोग-चि०)
वह अत्यंत उष्ण है। यहाँ तक कि तृतीय कक्षा वङ्गसेन-शुक्र नाम अति रोग अर्थात् फूला
सं भी इसकी गरमी बढ़कर चतुर्थ कक्षा तक पहुँच पर कपूर-कपूर का महीन चूर्ण वरगद के दूध
गई है । परन्तु इसमें उष्णता की अपेक्षा रूक्षता में मिलाकर आँख में प्रांजने से धन एवं उन्नत
कम है । किसी किसो का अभिमत है कि जब तक शुक विनष्ट होता है। यथा
कपूर भामाशयमें रहता है,शीतल है और जब यकृत "वट क्षीरेण संयुक्तं श्लक्ष्ण कपूरज रजः ।
की ओर जाता है, तब उष्ण हो जाता है।। क्षिप्रमञ्जनतो हन्ति शुक्रं वापि घनोन्नतम् ॥ __ हानिकर्ता-यूनानी चिकित्सकों ने इसे अनेक
(नेत्ररोग-चि०) दशाओं में हानिकर लिखा है । अस्तु, शीतल वक्तव्य
प्रकृति एवं निर्बल प्रकृति वालों को यह हानि चरक के "दशोमानि" प्रकरण में कपूर का करता है। यह शिरःशूल उत्पन्न करता, भामाशय उल्लेख नज़र नहीं पाता। परन्तु सूत्रस्थान के को निर्बल करता और कामशक्ति के लिये तो यहाँ पञ्चम अध्याय में इसके सम्बन्ध में यह लिखा तक विरुद्ध है कि इसके अधिक सूंघने मात्र से है-"धार्यमास्येन वैशद्य रुचि सौगन्ध्य वह कम हो जाती है। अफीम की अपेक्षा यह मिच्छता । तथा कपूर निर्यासं-"। सुश्रत अधिक हानिकर है। अफीमची जब अफीम के सूत्र स्थान के ४६ वें अध्यायमें कपूरका गुणोल्लेख प्रभाव से मुक्ति पाता है,तब वह अपनो जननेन्द्रिय दृष्टिगत होता है, यथा- 'स तिकः सुरभिः शीतः में मैथुन-शक्ति का अनुभव करता है, किंतु कपूर कर्पूरी लघुलेखनः । तृष्णायां मुखशोषे च वैरस्ये प्ले तो वह सर्वथा जाती रहती है। कपर वीर्य को चापि पूजितः" । वृद्धवाग्भट (अष्टांग संग्रह) में सांद्रीभूत कर देता है, वस्ति एवं वृक्त को शीतल कहा है-"रुचि वैशद्य सौगन्ध्य मिच्छन् वक्ण करता है और उन उभय अंगों में अश्मरी पैदा धारयेत् । जाती लवंग कपूर-"। आकरोक्त करता है । यह क्षुधा नष्ट करता और अनिद्रा रोग किंवा वृन्दचक्र कृत संग्रहोक कास, श्वास, प्रमेह उत्पन्न करता है। इसके अधिक सूंघने से प्रायः वा ग्रहणो चिकित्सान्तर्गत कपूर का व्यवहार नोंद कम आती है, यहां तक कि शिरःशूल दिखाई नहीं देता, किंतु रस चिकित्सा के प्रसार के उत्पन्न हो जाता है । यह पलित और वार्द्धक्य शीघ्र साथ उन सब रोगों में कपूर का व्यवहार प्रतिष्ठा | लाता है।