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कपास
२०१८
कपास
आदि पर बाँधने की खपाचियों पर इसकी गद्दी बनाकर रखते हैं । फ्लैग्मेशिया डोलेंस (टॉग की | सफेद सूजन) में विकृत जाँघ वा टाँग पर धुनकी हुई रुई की एक तह लपेट कर उसके ऊपर श्राइल सिल्ड रखकर पट्टी बाँध देना एक उत्कृष्ट स्थानीय उपचार है। इसी प्रकार कास, न्युमोनिया, और पार्श्वशूल (Pleurisy) आदि में रुई की जाकिट का धारण उपकारी होता है।
शोथ या अपक्क फोड़े की तीव्रता निवारणार्थसाफ कपास लेकर, जल में एक घंटा तक भिगो रक्खे, पश्चात् अच्छी तरह निचोड़ कर, टिकियासी बना, एक कटोरी में घी डालकर उसमें वह टिकिया मिला आग पर चढ़ावे । ध्यान रहे धी इतना लेवे कि जिसमें टिकिया अच्छी तरह भीग जावे । जब अच्छी तरह पक जाय, तब उसे सुखा कर शोथ या फोड़े पर रख, बाँध देवे वेदना शीघ्रही दूर हो जावेगी। फोड़ा शीघ्र ही पक जावेगा। किसी वेदना युक्र व्रण पर, इसी तरह बाँधने से अवश्य लाभ होता है।
अत्यार्तव या गर्भपात के कारण से स्त्री की जननेन्द्रिय में से रक्तस्त्र ति रोकने के लिये वाह्योपचार की तरह रुई बहुत सफलता के साथ कामयाब होती है । प्रयोग विधि यह है
प्रथम तुरत धुनको हुई रुई स्त्री की जननेन्द्रिय में दबाकर भरने को कहें । इससे डाट लगकर रक्क का पाना रुक जाता है। साथ ही भीतरी तौर पर प्राईक स्वरस में शुद्ध की हुई अफीम को एक मात्रा देवें। इससे स्थायी लाभ होते देखा गया है।
बिनौलापो०-कार्पास वीजं, तूल शर्करा, कार्पासकोकसं, कार्पासास्थि-सं०। बिनौला, बनौर,कुकटी, कपास का बीज, बेनडर-हिं । बनोला, बनोल:हिं०, द०। हब्बुल् कुन-अ० । पंबहे दानः, पुबहदानः-फ्रा० । काटन सीड्स Cotton seeds-अं०। परुत्ति विरै-ता। पत्ति-वित्तलु, कार्पास-वित्तुलु, प्रत्ति-वित्तुल-ते० । परित्ति-वित्त परुत्ति-बित्त-मल । हत्ति-बीज-कना०। कर्पाशबीज, कप्पास बीज, कपास बी (चि) कपासेर बीज-बं। कापसी, कापुस्, कापूसा-च-बी, सरकी-मरा०।।
रु-नु-बीज, कपास-नु-बीज-गु० । कपु-अट्ट-सिंगा। वा-सी-बर० । काँकड़े-मार० ।
गुणधर्म यूनानी मतानुसारप्रकृति-द्वितीय कक्षा में गरम और तर। हानिकर्ता-वृक्त को। दर्पघ्न-ख़मीरा बनाशा और कंद सफेद ।
प्रतिनिधि-कुसुम बीज, बादाम और ख़शखास सफेद ।
मात्रा-बिनौले की गिरी ६ माशा से १ तोला १०॥ माशा तक। __ यह तर, भारी, कफजनक, शुक्रजनक और स्तन्यवर्द्धक है । ता० श० । , छिलका उतारी हुई गिरो वक्ष एवं कोष्ठ मदुकर, उष्ण कास निवारक है तथा दालचीनी और शर्करा के साथ शीतल प्रकृति के लिये और सिकं. जवीन के साथ उष्ण प्रकृति वालों के लिये कामसंदीपन है। (यह श्वासकृच्छता तथा श्वास रोग को नष्ट करती और ) सोने के लिये उपयोगी है। मु० ना० पृ०५६ । ना० मु. पृ० ८३ ।
यह कामोद्दीपक और वीर्य स्तम्भक है, उदर तथा वक्ष को मृदु करता और गरमी की खाँसी को दर करता है। यह खुनाक़ (इखितनाक) रहम को लाभ पहुँचाता, वीर्य को सांद्र करता और दूध, घी पैदा करता है। इसकी गिरी पीने से कामोद्दीप्त होता है। इसका तेल मईन करने से लिंग दृढ़ होजाता है । इसके तैलाभ्यंग से मॉई
और चेहरे के काले धब्बे आदि और क्षत पाराम होते हैं । निविषैल है । म० मु०।
इसकी गिरी सीने को मृदु करती और गरम खाँसी को निवारण करती है। उष्ण प्रकृति में सिकाबीन और शीत प्रकृति में दालचीनी और शर्करा के साथ कामोद्दीपक है। मुख-व्रण, माँई, ब्यङ्ग तथा लहसुनादि (गोल काले या ललाई लिए काले चट्टे जो त्वचा से उभरे हुए होते हैं,) मुख रोगों पर इसका तेल उपयोगी होता और योषापस्मार में गुणकारी एवं अत्यन्त मदकारक है। बु० मु०।