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कनकचंपा
कनकतैल
कलिभार, कनिबार, काठचम्पा-हिं० । कर्णिकार, नादकर्णी-इसके पीताभ सुरभित पुष्प श्वेतकनक चांपा, मूस-बं०, बम्ब० । मत्सकंद ते०, प्रदर एवं प्रामाशयिक वेदना (Gastralgia) मद० । रेल्ल चेछु, कोंडगोगुचेद्दु, गोगुचेटु-ते०। में और पत्रावृत रोम रकस्तंभक रूप से व्यवहार हाथी पाइला-सिक्कि, नैपा.। मचकुन्द-संथाल । किये जाते हैं।--इं० मे० मे० पृ० ७१६ लैदीर-मेची । तौंग-पेट्ट-बुन, था-मजम-वेई-सोके चोपरा के अनुसार इसके फूल और इसका बरबटेरोस्पर्मम् असेरीफोलियम् Pterosper छिलका छोटी माता की फुन्सियों के पीव को बन्द mum acerifolium, Willd.-ले०। करने के लिये काम में लिया जाता है। अवार्नब्लैटीगर फ्लुजेल्सामेन Abornblattri | कनकचूर-संज्ञा पुं० एक प्रकार का धान । कनकचूर ger Flugelsamen-जर० । गैक-मग़. । की लाई से गुड़ को श्रामन बनती है। ... मुचकुन्द वर्ग
कनजीर, कनकजीरा-संज्ञा पुं० [सं० कनक+हिं० (N. O. Sterceliacece )
जीर ] एक प्रकार का महीन धान जो अगहन में उत्पत्ति-स्थान--यह वृक्ष भारतवर्ष के नाना तैयार होता है। इसका चावल बहुत दिन नहीं स्थानों में उत्पन्न होता है। श्राद्र भूमि में यह बिगड़ता। प्रायः पनपता है । उत्तर पश्चिम हिमाचल से | कनकजोद्भव-संज्ञा पु० [सं० पु. ] राल । लोबान कुमाऊँ, बंगाल चिटागाँग और कोंकण में पाया रा०नि० व० १२ । जाता है। हिमालय के नीचे के हिस्से में व | कनकझिङ्गा-संज्ञा पु एक पेड़। (Polygonum पहाड़ियों पर ४००० फुट की ऊँचाई तक होता है। elegans) बम्बई प्रांत में काफी बोया जाता है और श्याम में | कनकटा-वि० [हिं० कान काटना] जिसका कान भी पैदा होता है।
कटा हो । बूचा। औषधार्थ व्यवहार-पत्र, छाल, फूल
कनकटी-संज्ञा स्त्री० [हिं० कान+काटना] कान के गुणधर्म तथा प्रयोग
पीछे का एक रोग जिसमें कान का पिछला भाग कटुतिक्तः लघुः शोधनस्तुवरः रञ्जनः ।
जड़ के समीप लाल होकर कट जाता है और सुखदः शोथ श्लेष्म रक्तव्रण कुष्ठहरश्च ।।
उसमें जलन और खुजली होती है। (रा०नि०व०१) कनकतैल-संज्ञा पुं॰ [सं० को०] (१) शिरो रोग कनकचंपा-कडुअा, चरपरा, हलका, कसेला
में प्रयुक्त उक नाम की तैलोषधि-धतूरा, आक, शोधक, रञ्जक एवं सुखद है तथा यह सूजन, कफ
बला, दूर्वा, अडूसा, अरनी, संभालू, करज, रन, व्रण और कोढ़ का नाश करता है।
भारंगी, निकोठक (अंकोल ), पुनर्नवा, बेर, नव्यमत
भांग के पत्ते, बेरगिरी, बड़ी कटेली, चीता, सेहुँड डीमक-इसकी पत्ती के पृष्ठ पर लगी हुई की जड़, अरनी, वायबिडंग, निशोथ, मजीठ, सफेद रोई का पहाड़ी लोग रकस्तंभनार्थ व्यवहार गोमठी ( गोरोचन ) और अमलतास के पत्ते करते हैं । सपूय मसूरिका (Suppura
प्रत्येक २-२ पल । सबको १ द्रोण पानी में पकावें tingsmall-pox) में कोंकण-निवासी इसके
जब चौथाई भाग शेष रह जाय तब उतार कर फूल और वृक्ष की छाल ( Charred )
छानले । इस क्वाथ और इन्हीं चीजों के कल्क से को कमीला के साथ मिलाकर लगाते हैं -फा०
१ प्रस्थ तेल तीब्र अग्नि पर पकाएं। इ. १ भ. पृ. २३३।
गुण-यह तेल नेत्र पीड़ा, शिरःशूल, मांस गैम्बल-पत्तियों पर लगे हुये रोएँ क्षनजात : रकज श्लीपद, श्रामवात, हृदयपीड़ा, अण्डवृद्धि, रक्रस्राव स्तंभनार्थ ब्यवहार किये जाते हैं।
गलगण्ड, सूजन, बधिरता, उदर रोग खाँसी, टी० एन मुकर्जी कनकचंपा के फूल सार्व और कफ रोगों का नाश करता है। दैहिक वल्य औषधरूप से व्यवहार में पाते हैं। परीक्षा-यदि इस तेल की बूद दूर्बा घास ई० मे• •
पर डालते ही वह तत्काल सूख जाय तब तेल