________________
२०४२
गुण, कर्म, प्रयोग–यह तुमड़ीकी एक किस्म है, जिसके बीज कड़ ए होते हैं । यह शीतल एवं हृय है तथा विष, कास और पित्त का नाश करती | है। इससे बीज प्रत्येक मासांत में लाकर पीस लेवें और उसे आदी-स्वरस की इक्कीस भावना देकर तैल खींचे और उसे शीशी में सुरक्षित रखें। इकतालीस दिन इस तेल का अभ्यंग करने से अंग रद होता है । कहते हैं कि इस तेल में पारा बंध जाता है । कबु ए बीज की तुंबड़ी की जड़ सूर्य ग्रहण के समय ले आवें । यह जड़ जब तक कटि में बँधी रहेगी,वीर्य स्खलित नहीं होने देगी। ता० श०। __ यह प्रवल वामक है । तर दमा ओर खाँसी में इसके द्वारा कै करने से उपकार होता है। इसके दाँतों पर मलने से दाँत दृढ़ होते हैं । पकी हुई सूखी तितलौको लेकर चीरें । उसके सिर (गूदा और डंडी का मध्य भाग) में मकड़ी के जाले की सरह एक सफ़ेद पर्दा होता है, उसे लेकर बारीक चूर्ण करें । पित्तज कामला रोगी (यान ज़र्द) को यह चूर्ण थोड़ा थोड़ा सुंघायें। इसमें नाक से पीले रंग का द्रव सावित होकर रोगी आरोग्य लाभ करेगा । ताजी हरी तितलौकी को काटकर रात को पोस में रख देवें । प्रातःकाल उस पर पड़ी हुई मोस की बूंदें लेकर कामला रोगी की नाक में टपकायें। आँख की पीतवर्णता निवारणार्थ यह अनेकों बार का परीक्षित है । यदि बंदाल का फल और तितलौकी का गूदा-इनको पोस कर सुंघायें। इससे भी उपयुक्र रोग में बहुत उपकार होता है। इसका सिर काटकर पानी में तर करें और इसे दिन भर धूप में और रात भर श्रोस में रखें । फिर प्रातः काल इसमें से दो बूंद कामला रोगी की आँख में लगायें। इसके दो घड़ी बाद, हड़ का बक्कल और मिश्री इन दोनों का चूर्ण हथेली पर रखकर फैंकायें । उस दिन दहीभात खिलायें। इससे कामला रोग आराम होता है। बनाई के संकलनकर्ता ने इसे अपना परीक्षित वर्णन किया है।
तितलौकी की जड़ उष्ण और रूक्ष है। यह सरदी के शोथों को विलीन करती है और सरदी | के दर्द को लाभ पहुँचाती है।
__ वैद्यों के कथनानुसार तु बड़ी गुरु एवं तीक्ष्ण है किसी किसी के अनुसार यह लघु है एवं कफ तथा पित्त का नाश करती है। इसका पानी या वीजों की गिरी पीसकर नाकमें टपकाने से कामला रोग आराम होता है । तिकवीजा तितलौकी को कतिपय वैद्य हृद्य लिखते हैं । वे इसे विष, पित्त एवं कासनिवारक भी लिखते हैं। इसका तेल शरीर पर मर्दन काने से अंग पुष्ट होते हैं । इस काम के लिये इसका तेल इस प्रकार प्रस्तुत करें तो यह अधिक गुणकारी सिद्ध हो । विधि यह है-प्रथम इसके बीजोंको श्रादीके रसमें भिगोकर सुखा लेवे । फिर इसका तेल खीचें। इस तेल में पारा अग्निस्थायी हो जाता है। कडु ये बीज की कह की जड़ सूर्य ग्रहण के समय उखाड़ लावें। यह जड़ जब तक कटि में बँधी रहेगी,वीर्य-स्खलित नहीं होगा। तितलौको की बेल के सभी अंगों को लेकर सुखा लेवें । फिर उसे कूटकर गरम पानी में घोलें और उस पानी में दोनों पाँवों को डुबो रखें थोड़ी देर पश्चात् जब मुख का स्वाद कड़ा हो जाय, तब पाँवों को उस पानी के बाहर निकाल लेवें ओर काफी कपड़े श्रोढ़कर पसीना लावें । इससे कुष्ठ एवं पुरानी खुजली पाराम होती है। परीक्षित है। तितलौकी के भीतरी भाग को बिना पूर्णतया साफ किये, उसमें खान-पान की वस्तु भरी रखकर, कुछ देर पश्चात् उसे खाने-पीने से विशूचिका की तरह
-दस्त होने लगते हैं। यदि इसका समय से उचित उपाय न किया गया, तो इसे खाने वाले मनुष्य के जीनेकी कोई प्राशा नहीं की जा सकती।
इसके गूदे का रस एक-दो बूंद नाक में डालने से सिरका दूषित जल बहने लगता है और नाक की दुगंधि जाती रहती है। इसको गुड़ और काँजी के साथ पीसकर लेप करने से बवासीर आराम होता है । इसमें सप्ताह पर्यन्त जल भरा रखकर, उस जल को पीने से गंडमाला मिटतो है। इसके बीजों के लेप से फ्रालिज़ पाराम होता है। इसके पत्ते और लोध पीसकर लेप करने से व्रणपूरण होता है।-ख० अ० __थोड़ी मात्रा में खाने से यह बहुत कै लाती है ।
इसको खाकर कै करने से सर्द और तर दमा एवं - चिरकारी तर खाँसी में उपकार होता है। इसके