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कालध्वज
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कजली
सन्धिमर्म में होनेवाले समस्त रोगों को यह दूर | कज्जलरोचक संज्ञा पुं० [सं० पु ं०-क्ली० ] दे० करता है ।
"कज्जलध्वज' ।
(३) एक गूलर वृक्ष के काष्ठ का बना पात्र ले, उसमें श्रमली के पत्तों को डालें। पुनः उसमें गुआ की जड़ को भिगोकर धूप में सुखाकर पीस लेवें। इसमें थोड़ा सेंधानमक मिलावें । फिर इसे सुन्दर अंजन में मिलाकर नेत्रों में लगाएं, इसके प्रयोग से नेत्र के समस्त रोग जैसे - काच, श्रर्म, अर्जुन, पिचिट, तिमिर, स्राव इत्यादि दूर होते हैं ।
( ४ ) जल में खस, संधानमक बारीक पीस कर घृत मिलाएँ। पुनः इसे नेत्र में लगानेसे नेत्र में ठंडक प्रतीत होती है यह नेत्र के प्रत्येक बीमारी में हितकर है। (५) सुरमा, मूँगा, समुद्र माग, मैनशिल, कालीमिर्च, इनको जल में बारीक पीस बत्ती बनाएँ और नेत्र में लगाएँ। यह नेत्र के समस्त रोगों को दूर करता है ।
(६) कमल के पुष्पकी धूली । को गौ के गोबर में पीसकर गोली बनावें । इसे नेत्रों में लगाने से रतौंधी और दिन में धुन्ध दिखाई देने में लाभ होता है ।
(७) शंखनाभी, सोंठ, मिर्च, पीपर, सुरमा, मनशिल, हल्दी, दारूहल्दी, गौ के गोबर का रस, सफेद चन्दन - इन्हें बारीक पीसकर गोली बनाएँ । इसका अंजन करने से रात और दिन में धुन्ध दिखाई देना दूर होता है । ( भै०र० )
(८) एक टुकड़ा नवीन स्वच्छ कपड़ा लें और उस पर कपूर, अफीम, रसवत, लवंग, फिटकिरी, हल्दी, जीरा सफेद और सोयाके बीज इनको जल में पीस कर लेप करें। जब कपड़ा अच्छी तरह सूख जावे, इसकी एक बत्ती बना लें और कटु तेल में भिगोकर लोह के पात्र में काजल पारें । गुण- इसे प्रति दिन बालकों के नेत्रों में श्राँजने से नेत्र रोग शून्य रहते हैं । — लेखक कज्जलध्वज - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( १ ) दीपाधार दीयट | दीवट |
पर्या० - कज्जलरोचकः, कौमुदीवृक्षः, दीपवृक्षः शिम्बातरुः, दीपध्वजः ( ज० ), ज्योत्स्नावृत्तः, (त्रिः ) | ( २ ) चिराग़ । प्रदीपशिखा ।
कज्जला -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक प्रकार की मछली | Cyprinus atratus ) । इसका संस्कृत पर्याय कज्जली और अनएडा है । दे० " कजली वा पारा" ।
कज्जलि, कज्जलिका संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] दे० " कजली" ।
कज्जलित - वि० [सं० त्रि० ] ( १ ) काजल लगा हुआ । श्रजा हुन । चंजनयुक्र । ( २ ) काला
स्याह ।
कज्जली - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) एक प्रकार की मछली । मीन विशेष । (२) एक साथ पिसे हुये पारे और गंधक की बुकनी । श० र० । वि० दे० ' कज्जली" वा "पारा" ।
शुद्ध पारद और शुद्ध गंधक श्रामलासार समान भाग लेकर खरल में डालकर इतना घोटें कि पारद श्रदृश्य हो जाय श्रीर दोनों श्रापस में मिलकर कज्जल के समान स्याह हो जायँ । इसे कजली कहते हैं । यह बृंहणी, वीर्यवर्धनी और अनुपान भेद से समस्त रोगों का नाश करनेवाली है । वृ० रस रा० सु० 1 ज्वर-चि० । कज्जली भेद
कटेली, संभालू और नाटाकरंज के रस को एक ठीकरे में डालकर उसमें गंधक का चूर्ण डाल कर मन्दाग्नि पर रक्खें। जब गंधक पिघल जाय, तब उसमें समान भाग पारा डालकर उसे जल्दी से मिलाकर नीचे उतार लें और फिर यहाँ तक खरल करें कि वह कज्जल के समान स्याद्द हो जाय । सेवन विधि - सन्निपातज्वर में - १ रत्ती कजली और १ माशा जीरे का चूर्ण तथा १ माशा सेंधानमक मिलाकर पान में रखकर खिलायें और ऊपर से गरम पानी पिलायें ।
वमन में इसे — मिश्री के साथ, आमदोष में गुड़ के साथ, क्षय में बकरी के दूध के साथ, रक्तातिसार कुड़े की जड़ की छाल के रस के साथ और खून की उल्टी में गूलर के रस के साथ दें ।
यह कज्जली सर्वं व्याधिनाशक, आयुर्वर्धक और श्रासन्नमृत्युमनुष्य को भी जीवन दान देनेवाली है । वृ० रस रा० सु० ज्वर - चि० ।