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कडूतेल १९७३
कणगुग्गुलु कडूतेल-संज्ञा पुं० [हिं० कड़+तेल ] कडु पातेल | का निवारण करनेवालो श्रोर किंचित् पित्त को कड़पर-लंका] हिरनखुरी । शुदिमुदि (बं०)। प्रकुपित करनेवाली है।
( Emilia sonchifolia ,D. C.) नोट-उपयुक्र श्लोक में भावप्रकाश में कथिका कडूपरवल-[म. ] दे. "कड़ परवल"।
की जगह 'कथिता' और प्रकोपिनी के स्थान में कडू बादाम-[म.] कडपा बादाम । कटुवाताद। 'प्रकोपणी' ऐसा पाठ भेद आया है। कडू भोपला-म० दे० "क भोपला" ।
(२) कोई-कोई उन कड़ी में बेसन की पकौड़ी कडैल-संज्ञा पुं॰ [सं० करवीर ] दे० "कनेर"। छोड़ देते हैं और हींग प्रभृति के साथ राई भी कडेंरु-[पं०] थुनेर।
मिलाते हैं। कढ़ी में पढ़नेवाली पकोड़ी फुलौड़ी कडो-[ बर० ] कस्तूरी । मृगनाभि । मिश्क ।
कहाती है । बेसन को जगह कभी मूंगकी धोई हुई कडो-किरयात-[ गु० ] नै । नाई।
दाल का श्राटा डालते हैं। छः कच्चे अनारों को कड़ोंची-सता स्त्री॰ [देश॰] एक प्रकार की बेल जो पानी में घोटकर भुनी हुई मूंग की दाल का आटा
वर्षा के प्रारम्भ में जमती है। इसकी पत्तियाँ मिला कढ़ी प्रस्तुत करे। दस्त बन्द करने में यह छोटी और कंगूरेदार होतो हैं, फूल छोटा पीले रंग
गुणकारी है। इसी प्रकार यह कभी श्राम की केरी का होता है और फल अाध गिरह लंबा, बारीक,
से भी बनाई जाती है। चुन्नटदार होता है । इसके ऊपर का छिलका पतला
(३) इस शब्द को मुहीत आज़म में नुसखा होता है । फल में दो खाने होते हैं, जिनमें से हर | सईदी से उसी की इबारत के साथ उद्धृत एक में एक-एक बोज होता है। जड़ शलगम के किया है। प्राकार की गोल और कड़ी होती है। कासिरकाइ कढ़ी निंब, कढ़ी नीम-संज्ञा पुं-[हिं० कढ़ी+नीम ] कड़वंची। मु.प्रा।।
सुरभी निम्ब । मीठा नीम । कडौल-सिं.] पौरुष (बं•, सं०)।
कढुवा-संज्ञा पुं० पात्र विशेष । पुरवा । बोरका । कड्डल शिंगी-[ ता०] चिल्ल। चिलार । बैरी।।
कदुई-[पं०] तिलपत्र । (Casearia esculenta, Roxb.)
कण-सज्ञा पुं॰ [सं० पु] (१) पीपल । पिप्पली । कढ़ो-संज्ञा स्त्री० [हिं० कढ़ना=गाढ़ा होना, वा सं०
"कणलवणवचैला" वा० सू० १५ अ० शोधन कथिका ] एक प्रकार का सालन । इसके बनाने
व०। (२) धान्य प्रादि का अत्यन्त छोटा की विधि यह है-आग पर चढ़ी हुई कढ़ाई में
टुकड़ा। किनका | रवा। ज़र्रा मे० णद्विक । घी वा तेल, हींग और हल्दी की बुकनी ढालदे ।
(३) चावल का बारीक टुकड़ा । कना । (४) जब सुगंध उठने लगे तब उसमें नमक, मिर्च
लेश । बहुत थोड़ा । हे० च० । (५) वनजीरक, समेत मठे से घोला हुआ बेसन छोड़ दे ओर मंदी
जंगली जीरा । रा०नि० व० ६ । (६) अनाज आँच से पकावे। जब यह सिद्ध हो जाय, तब
की बाल । उतार लेवे । देश में इसे कढ़ी कहते हैं। वैद्यक निघण्टु और भावप्रकाश में क्रमशः 'कथिका"
| कणकच-संज्ञा पु. [ देश०] (१) केवाँच । कौंछ । तथा कथिता नाम से इसका उल्लेख हुआ है । उक्न |
कपिकच्छु । (२) करंज | कंजा । ग्रंथों में इसके गुण इस प्रकार लिखे हैं। कणकक्षार-सं• पु० [सं० वी० ] सोहागा । टंकण ।
रा०नि० । नि० श०। कथिका पाचनी रुच्या लध्वो च वह्निदीपनी।
कणगच, कणगज-संज्ञा पु०, दे० "कणकच" । कफानिलविवन्धघ्नी किश्चित् पित्तप्रकोपिनी ॥
कणगज, कणगजा-[ राजपु०] कंजा | करंज ।
(वै० निघ०) कणगन-[ राजपु.] कंजा । कदी-पाचक, रुचिकारी, हलकी, अग्नि को | कणगुग्गुल-संज्ञा पु., दे० कणगुग्गुलु"। दीपन करनेवाली, कफ, वात एवं विवन्ध-बद्धकोष्ठ । कणगुग्गुलु-संज्ञा पु. [स० पु.] (१) सफ़ेद