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कण्डूला
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प्रभृति | सूरन । ज़मीकन्द । शूरण । रा० नि० व० ७ ।
वि० [सं० त्रि० ] कण्डू युक्त । रोगविशेष । कण्डूला - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] श्रत्यम्लपर्णी लता । मलोलवता । रामचना | वै० निघ० । कण्डेर - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] चौलाई । तण्डुलीय ।
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भा० ।
कण्डोध - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] शूक नाम का कीड़ा |
कण्डोल - संज्ञा पु ं० [सं० पुं० ] ( १ ) ऊँट । उष्ट्र उणा० | ( २ बाँस श्रादि का बना धान्य रखने का पात्र । श्रम० ।
पर्या०-पिट, पिटक, पेटक | भ० । (३) एक प्रकार की गोणी । डोल । वोरा ।
कण्डोलक - संज्ञा पुं० [सं० पु ं०] कण्डोल । हे०च० । 3 बाँस का बना डोल ।
कण्डोलवीणा, कण्डोली - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] चण्डालवीणा | कँदड़ा | छोटा बीन । श्रम० । पर्याय- चण्डालिका, चण्डालवल्लकी, कटोलवीणा ( भ० ), कन्डोली, शब्द र० । चण्डालिका | कण्डोष-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] कोषकार | झांझा । बूट का कीड़ा ।
कण्डवोध - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] शूक कीट । श० चे० । झांझा ।
कण्व - संज्ञा पुं० [सं० क्ली० ] पाप ।
वि० [सं० त्रि० ] वधिर । बहरा । कत, कतक-संज्ञा पुं० [सं० पु०, क्री० ] (1) निर्मली वृक्ष | | निर्मली का पेड़ । (strychnos potatorum, Linn.) रा० नि० व० ११ | भा० म० श्राम्रव० । वि० दे० " निर्मली” (२) कसौंजा | कसौंदी । (३) कुचला । कुचेलक । २० मा० । च० सू० ४ श्र० विषघ्नव० । ( ४ ) जंबीरी नीबू । जंबीर वृक्ष । त्रिका० । (५) रीठा ।
कत - संज्ञा पुं० [देश० ] कत्था । खैर । क़त - [ ० ] इस्पस्त । रतबा ।
क़त, कृत: - [ ० ] एक प्रकार का लाल रंग का कीड़ा जो लकड़ी में उत्पन्न हो जाता है । कतक-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] निर्मली का पेड़ ।
संज्ञा पुं० [सं० क्वी० ] निर्मली ( फल ) !
क़तना
क़तक़ - [ तु० ] ( १ ) दही । ( २ ) सालन । कतक- कल्ली -[ मल० ]·तिधारा हुँ । कतकफल - संज्ञा पु ं० [सं० पु०, क्री० ] ( 1 ) निर्मली का पेड़ । कतक वृक्ष | रा० नि० व० १.१ (२) तमाल का पेड़ | दमपेल ।
संज्ञा पुं० [सं० नी० ] निर्मली ( फल वारिप्रसादन फल । यथा—
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“कट्फलं कतकफलम् । शशकपुरीषप्रतिम फेनमम्बु प्रसादनम् " | ड०। सु०सू० ३८ परूषकादि । वा० सू० १५ श्र० परूषकादि । कतक-फलादि-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( १ ) निर्मली के फलों को कपूर के साथ घिसकर शहद के साथ अंजन करने से नेत्र स्वच्छ होते हैं । ( २ ) निर्मली के फल, शंखनाभि, सेंधा नमक, त्रिकुटा, मिश्री, समुद्रफेन, रसवत्, वायविडंग, मैनशिल और शहद | इन्हें समान भाग लेकर स्त्री के दूध में बारीक पीसकर रक्खें ।
गुण- इसका श्रंजन करने से तिमिर, पटल, काच, (मोतियाबिन्दु ) धर्म, शुक्र, ( फूली ) खुजली, क्लेद, (रतूत्रत) और अबु दादि नेत्र रोगों का नाश होता है । योग० २० । नेत्र रोग चि० | कतकबीज - संज्ञा पुं० [सं० वी० ] निर्मली बीज । कतक बीज योग-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] निर्मली के
बीज १ कर्षं लेकर छाँछ में पीसकर शहद के साथ सेवन करने से समस्त प्रकार के प्रमेह अत्यन्त शीघ्र नष्ट होते हैं । वृ० नि० र० । कतकाद्यञ्जन - संज्ञा पु ं० [सं० की ० ] नेत्र रोगों में
प्रयुक्त एक प्रकार का अंजन । विधि-निर्मली के फल का बीज, शङ्खचूर्ण, सेंधा नमक, सोंठ, मिर्च, पीपल, मिश्री, समुद्रफेन, सुर्मा, वा रसवत, शहद, विडंग, मैनसिल, कुक्कुटाण्ड, कपाल, इन्हें समान भाग लेकर कूट कपड़ छानकर स्त्री के दूध से मर्दन कर अंजन तैयार करें।
गुण- इसके उपयोग से तिमिर, पटल, काच, नेत्र कण्डू, नेत्र का अर्बुद, धर्म, शुक्र, क्रेद, और नेत्रगत बाहरी मल दूर होता है । बासव रा० १७ प्र० पृ० २६६ |
तन - [ ? ] एक प्रकार की मछली । क़तना -[ शामी ] बाँस । क़सुब ।