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कलिकका, कटुतिक्तका
१६-४७.
(२) बड़े सन का पेड़ । महाशणवृत्त । पटसन । (३) सन का पेड़ | शणचुप रा० नि० व० ४ । कटुतिक्तका, कटतिक्तिका -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (१) महाराण । सन का पौधा । पटसन । प० मु० । ( २ ) तितलौकी । कटुतुम्बी । श० र० । (३) शणपुष्पी | धन्व० नि० । कटुतिक्ततुरडी - संज्ञा स्त्री० [ सं स्त्री०] बिम्बी | कड़वा
कुन्दरु |
कटुतिक्का - संज्ञा स्त्री० [सं० [स्त्री० ] ( १ ) तितलौकी कटुतुम्बी । ( २ ) कड़वी तोरई । कटुतुण्डी । रा० नि० व० ३ ।
कटुतिन्दुक - संज्ञा पु ं० [सं० पु ं०] कुचला कुचे- कटु-तुम्ब्यादि लेप-संज्ञा पुं० [सं० पुं०] श्रर्श
रोग में प्रयुक्त होने वाला एक लेप ।
लक । श० च० ।
कटुप्पिली - [ ० ] भुइ श्रोकरा | वशीर । बुक्कन | ( Lippia Nodiflora, Rich . ) जलपीपर ।
• निर्माण क्रम- कड़वी तुम्बी के बीजों को कांजी में पीसकर गुड़ मिलाकर लेपकरने से बवासीर का समूल नाश होता है । वृ० नि र० श्रर्शचि०। कटु-तैल-संज्ञा पुं० [सं० की ० कड़ा तेल | सरसों का तेल । सार्षप तेल । दे० "सरसों” । : अनि० सू० १४ श्र० । वा० टी० हेमा• ॥ तैल व० । रा० नि० १५ व० ।
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कटु तैल मूर्च्छा - संज्ञा स्त्री०
[सं० स्त्री० ]
कडू ये तेल की मूर्च्छा विधि - हड़, हल्दी, मोथा, अनार, केशर, बेल की जड़, काला जीरा, सुगंधवाला, बहेड़ा, नलिका (नली) और श्रामला १-१ कर्ष, मजीठ २ पल, तेल कड २ प्रस्थ, जल २ श्राढक । प्रथम हल्दी पुनः मजीठके चूर्ण का पुनः श्रन्य श्रोषधियों का प्रक्षेप डाल कर विधिवत् तेल सिद्ध करें। यह श्रामदोषहारक है । भैष० २० | वि० दे० 'सरसों" । कटुत्रय-संज्ञा पु ं० [सं० क्ली० ] तीन कदुई औषधियों का समूह । यथा— सोंठ, मिर्च और पीपर । पर्याय — कटुत्रिक, त्रिकटु | रा० नि० व० २२ | भा० । गुण – इसके सेवन से स्थूलता, श्रग्निमांद्य, श्वास, कास, श्लीपद और पीनस रोग नष्ट होता । वा० भ० सं०
कटुत्र्यादि चूर्ण - संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] कास रोग में प्रयुक्त, उक्त नाम का एक योग । यथा - सोंठ, मिर्च, पीपल, चीता, देवदारु, रास्ना, वायविडंग, त्रिफला और गिलोय । इन्हें समान भाग लेकर
यथाविधि चूर्ण करें ।
कटुतुण्ड -संज्ञा पु ं० [सं०] कड़ श्री कुनरू । कटुतुण्डिका, कटुतुण्डी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (१) कड़वी तुरई । तिक्रतुण्डी । वीतीतरोई । संस्कृत पय्याय—तिक्रतुण्डी, तिलाख्या और कटुका | गुण - यह कटु तिक्क तथा कफ, वान्ति, विष, अरोचक एवं रकपित्त नाशक और रोचन होती है । ( २ ) कडुवा कुन्दरू | नि०शि० रा० नि०
व०.३ । (३) कुनरू । बिस्त्री । तेलाकुचा (बं० ) । वि० दे० "तुरई" | कटुम्बिका, कटुतुम्बी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] तितलौकी | तिक़ालाबु । कड़वी तुम्बी वै० निघ० ।
राज० ।
कटु-तुम्बिनी - संज्ञा स्त्री० सं० स्त्री ] तितलौकी । तिन अलाबु । रा० नि० व० ३ ।
कटुयादि चूर्ण
करें | इसका नस्य लेने से पुरातन गलगण्ड का नाश होता है । कटु-तुम्ब्यादि तैल-संज्ञा पुं० [सं० नी० ]
निर्माण विधि - कड़वी तुम्बी के ४ गुने रस में और पिप्पल्यादि गण ( पीपल, पीपलामूल, चव्य, चित्रक, सोंठ, मिर्च, गजपीपल, रेणुका, इलायची, अजमोद, इंद्रजौ, पाठा, सरसों, बकाइन, मैनफल, हींग, भारंगी, मूर्वा, श्रतीस, वच, वायविडंग और कुटकी) के कल्क से सिद्ध तैल से गण्डमला और गलगण्ड का नाश होता है । वृ० नि० २० गलगण्ड चि० ।
कटु-तुम्बी - संज्ञा स्त्री = [सं० स्त्री० ] कड़वी तुम्बी । तितलौकी | विक्र अलाबु । रा० नि. कटु-तुम्बी तैल-संज्ञा पु ं० [सं०ली० ] गलगण्ड रोग में प्रयुक्त उक्त नाम का एक योग, यथा
निर्माण विधि-- बायविडंग, जवाखार, सेंधानमक, चव्य, रास्ना, चीता, सोंठ, मिर्च, पीपल श्रीर देवदारु इन्हें समान भाग लेकर कल्क बनाएँ, कड़वी तुम्बी का रस ( स्वरस सबसे चौगुना ) और कड़वा तेल ( १ भाग ) लेकर तेल सिद्ध
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