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• कटेरी.
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कटली पाक
है और शरीर में शक्ति प्राजाती है तथा नेत्र रोग बी. डी. बसु के अनुसार इस पौधे का काढ़ा पाराम होते हैं।
सुज़ाक रोग में लाभकारी है। इसकी कली और यदि इसके फल को तिल तेल वा बादाम फूल प्रांखों से पानी जाने की बीमारी में लाभ तैल में भूनकर तेल को साफ करलें, और श्राव- पहुँचाते हैं। श्यकतानुसार उस तेल को कान में डालें तो इससे
पक्षाब में इसके पत्तों का रस कालीमिर्च के कर्णशूल तुरन्त शांत होताहै । शरीर पर इस तेल
साथ श्रामवात रोग में दिया जाता है। के मलने से क्रान्ति एवं श्रान्ति दूर होजाती है।
बगाल में यह औपधि जलोदर रोग में मूत्रल शहद में मिलाकर इसकी गुदवर्ति करने से गुदा
वस्तु की तरह काम में ली जाती है। जात कृमि नष्ट होते।
कटेरे की झाड़-[२०] कटेरा । गनियार । __इसके फल को जलाकर भस्म कर लेवें । यह
कटेली-संज्ञा स्त्री॰ [देश॰] (१) एक प्रकार को भस्म १ रत्ती से ४ रत्ती तक या एक माशा तक
___ कपास जो बङ्गाल प्रांत में बहुतायत से होती है। सेवन करने से कास और श्वास दूर होजाते हैं। | कटला अवलह-सज्ञा पु ०-१ सर
| कटेली अवलेह-संज्ञा पु०-१ सेर कटेली लेकर १६ - इसके फल का रस लगाने से सफेद बाल काले
सेर पानी में काथ करें जब ४ सेर शेष रहे तब ४ होजाते हैं।
सेर मिश्री की चाशनी प्रस्तुत कर पुनः इसमें __ कटाई के बीजों की भस्म, काला नमक, और गिलोय १ टका भर, चव्य १८०, चित्रक १ ट., पीपल सम भाग लेकर लऊक सपिस्तों के साथ नागरमाथा १ ८०, काकड़ासिगी १ ८०, सोंठ १
ट०, पीपर १ ८०, धमासा १ ८०, भारङ्गी १ ८० थोड़ा प्रयोग करावें । पुरातन कास में यह परीक्षित हैं।
कचूर १ ८0, इन्हें महीन पीस चासनी में मिलाएँ - आर. एन. खोरी-अपक्क, स्फोटक एवं
फिर इसमें : सेर शहद और १ पाव बंशलोचन
का चूर्ण तैयार कर मिलाएँ। गुण-१ टका भर बध्नाधिपर कटेरी के बीजों को पीसकर प्रलेप
नित्य खाने से हर प्रकार की खाँसी नष्ट होती है। करने से, वे पक्कता को प्राप्त होते हैं। कटेरी के
श्रम० सा०। बीजों की धूनी (Fumigation ) को लाला स्वाव वद्धक जानकर एतद्देशीय लोग इसका
कटेली-पाक-हिं संज्ञा पु-कण्टकारी अवलेह । व्यवहार करते हैं । अधिकन्तु क्रिमि-शनित दंत
योग-पत्रमूल सहित कटेरी १ तुला (१०० पल) शूल निवारणार्थ यह धूम अति प्रशस्त है। मे०
१ द्रोण ( ४०६६ टंक) जल में १०० टंक हड़ मे0 आफ इं २ य) खं०, पृ० ४५०।
डाल के श्रौटाएँ, जब चौथाई शेष रहे तब कपड़े
से छानकर उसमें १०० पल गुड़ मिलाके औटाएं डीमक-कटेरी के जलते हुये बीजों के वाष्प
जब चाशनी ठीक आजाए तब फिर उसमें त्रिकुटा की धूनी लेने से दंत,शूल धाराम होता है। यह
३ पल, शहद ६ पल मिलाएं। इसके बाद इसमें धूनी बहुत प्रसिद्ध है। देशी लोग इन बीजों को
बंशलोचन, खैरसार, ब्राह्मी, भारङ्गी, काकड़ासिंगी, चिलम में रखकर तमाखू की भाँति पीते हैं। और
कायफल, पुष्कर मूल और अडूसा प्रत्येक अर्द्ध उनका यह विचार है कि इसके धूम से वे कीड़े
अर्द्ध पल । दालचीनी, तेजपात, इलायची, नागनष्ट होजाते हैं जो शूल उत्पन्न करते हैं। पुराने
केशर, एक एक तोला बारीक चूर्ण कर मिलाकर लोग पारसीक यमानी बीज ( The Seeds
उत्तमअवलेह प्रस्तुत करें। मात्रा-१-४ माशा । of Henbane) को भी इसी प्रकार सेवन
गुण तथा प्रयोग-बिधि-इसे विधि-पूर्वक करते थे। ये प्रबल लालास्राव वद्धक प्रभाव करते
सेवन करने से वात, पित्त, और कफ से उत्पन्न हैं । अस्तु, इनसे रोग शमन हो जाता है। फाo
रोग दो दोषों से उत्पन्न ब्याधियां, खांसी, त्रिदोष इं० २ भ0 पृ०५५८-५६ ।
विकार, क्षत रोग, क्षयी, पीनस, श्वास, उरःक्षत नोट-दंतशूल में इसकी धूनी लेने की विधि | तथा ११ प्रकार की यक्ष्मा रोग को नष्ट करता है। ठीक गोनी बीजवत् ही है । अस्तु,दे० "गोनी"। | (योग चि०)