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कटु वाष्पिका
१६५० कटु वाष्पिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] महाराष्ट्री जिसे कोंकण में गोविंदी कहते हैं । यह कटु, उप
मरेठी । गलफुलना । प० मु.। पानी पीपर । कफनाशक, वातनाशक और विसूचिका की नाशक कटु विपाक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] चरपरा-विपाक होती है । वै० निघ। कटुपाक । द्रब्य का पाक कटुत्व । ती, चरपरे
कटूमर-संज्ञा स्त्री० [सं० कटु+उदुम्बर, हिं० कठूमर ] और कसैले रस वाले द्रव्य मात्र इसके प्राय
जंगली गूलर का वृक्ष । कट गूलर । स्थान हैं, वा यू' कहिये कि उक्र रसमय द्रव्यों |
कटूषण-संज्ञा स्त्री० [सं० जी०] (१) पिपरामूल, का विपाक चरपरा होता है। कटु विपाक वाले
पिप्पलीमूल । (२) सोंठ । रा० नि. व०६ । द्रव्य गुण में हलके, वायुकारक, शुक्रनाशक और (३) पीपल । पिप्पली । वै० निघ० । • कफ एवं पित्त नाशक होते हैं। सु० सू० ४० कटूषणा-संज्ञा स्त्री॰ [सं० स्त्री० [ दे० "कटूषण" । श्र० । वि० दे० "विपाक"।
कटेन्थ-[ मल.] जंगली खजूर । कटुवोजा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] पीपल । पिलो कटेरनी-[ सिंध ] रेंड । अरंड । करबिला । (पं.)। रा०नि०व०६।
ई० मे० प्ला। कटुवीरा-संज्ञा स्त्री० [सं. स्त्री. लाल मिर्च । रक
कटेग-संज्ञा पुं० [फा० कतीरा ] (१) कंट मरिच । कुमरिच । यह अग्नि जनक, दाहक ओर
पलास । गनिबार। (२) कतीरा। सम्मुख बलास, अजीर्ण, विशूची, व्रण, लेद, तन्द्रा, मोह,
कताद (१०)। प्रलाप, स्वर भङ्ग एवं अरोचक नाशकहै । कटवीरा
संज्ञा पुं॰ [फा०] कसेरू। सन्निपात-जड़ीभूत और हतेन्द्रिय मनुष्य को मरने
कटेरा गोंद-संज्ञा स्त्री० [हिं० कटीरा + गोंद ] | नहीं देती । अत्रि० । दे. "मिर्च"।
कतीरा। कटुश्रवा-संज्ञा स्त्री० [सं०] कडु वा कुनरू। कटुशृङ्गाट, कटुशृङ्गाल-संज्ञा पु सको कटराए हिन्दी-संज्ञा पुं० [फा०] हिंदी कतीरा
मा० । गोंद। एक प्रकार का साग, जिसे गौर सुवर्ण वा सोन
कटेरी-संज्ञा स्त्री० [हिं० काँटा ] एक भूलुण्ठित कुछ भाजी भी कहते हैं और जो चित्रकूट में अधिकता
क्षुप जो छत्ते की भाँति भूमि पर प्राच्छादित से होता है । रा०नि० व० ७ ।
होता है। यह ऊँची एवं शुष्क भूमिमें उत्पन्न होती कटुषा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] चकवड़ | पवाँड़।।
है। नदी तीर में यह बहुत सुख मानती है और कटसिंह पुत्री-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] छोटा पिठ
खूब बढ़ती है । शीतकाल में यह संकुचित रहती न । बुद्ध पृश्निपर्णी।
है और गरमी के दिनों में फूल-फल से सुशोभित कटुसिंही-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कड़वा बैंगन ।
होती एवं बरसात का पानी पड़ते ही क्रिन होकर कटु वार्ताको । .
नष्ट होजाती है । इसमें अत्यधिक शाखाएँ होती कटुस्नेह-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (१) सरसों । हैं । जड़ न्यूनाधिक द्विवर्षीय होती है। चुप कॉर
सर्षप । त्रिका० (२) कड़वा तेल । कटु तैल । रहित होता है । पत्ती आकृति में बागोभी की भैष० बाल-चि० । (३) सफेद सरसों। गौर पत्ती की तरह की प्रायः युग्म, दीर्घायताकार, सर्षप । रा०नि० व० ७ ।
कलशाकार ( Pinnatifid) वा भालाकार कटहुश्ची-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) करेली। एवं मसृण होती है, किंतु-इसके दोनों पृष्ठ पर
कारबेल्ल । रा०नि० व० ७ । (२) कर्कटी। दीर्घ सुदृढ़ एवं सरल कण्टक होते हैं। पत्र मध्य ककड़ी।
से पुष्प-स्तवक निकलते हैं । पुष्प दंड प्रायः इतना कटूत्कट,कटूत्कटक-संज्ञा पुं० [सं० क्ली०] (१) लम्बा होता है, जिस पर ४-६ तक एकाँतरीय,
सोंठ। शुण्ठि । (२) अदरक । प्रादी। सवृत, वृहत्, उज्ज्वल नीलवर्ण के पुष्प श्रा र०मा०।
सकते हैं । फूल की कटोरी वा पुष्प वहिरावरण कटूदरी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक प्रसिद्ध औषधि पर सीधे कांटे होते हैं । शाखा, पत्र पृष्ठोदर, पत्र