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कटेरी
१९५२
औषधार्थ व्यवहार-समग्र तुप, फूल, केसर, फल, बीज इत्यादि।
मात्रा-काथ-५-१० तो०; स्वरस १-२ तोर; कल्क।
औषध निर्माण-कण्टकत्रय, कण्टक पञ्चमूल, कण्टकारि (री) त्रय, कण्टकारी घृत,कण्टकारी द्वय, कण्टकार्यादि, कण्टकार्यावलेह और भृगुहरीतकी प्रभृति योगों का कण्टकारी एक प्रधान उपादान है ।इससे निम्नलिखित औषधे भी प्रस्तुत होती हैं
कंटकारी क्षार-कटाई के समग्र क्षुप को छाया में सुखाकर जला लेवें और जलाने से जो भस्म प्राप्त हो, उससे क्षार-निर्माण-विधि द्वारा लवण प्रस्तुत करें। अर्थात् उक्त भस्म को पानी में घोलकर तीन दिन तक पड़ा रहने दें। इसके उपरांत ऊपर का साफ पानी लेकर पकायें । पानी जल जाने पर जो बचे उसे खुरचकर रखें। यही कण्टकारी का लवण है।
गुण प्रयोग--यह श्वास और कास में परम गुणकारी है और श्राहार पाचक एवं क्षुधाजनक है। इसमें सम भाग जौहर नौसादर मिलाकर इसमें से थोड़ा नाक में नस्य लेने से अपस्मार और योषापस्मार श्राराम होते हैं।
मात्रा-१-१ रत्ती।
कण्टकारी रस क्रिया (सत) कण्टकारी का समग्र रुप लेकर मिट्टी प्रभृति से शुद्ध करके खूब कूटें । पुनः उसमें अठगुना पानी मिलाकर अग्नि पर चढ़ाकर पकायें। जब जलते जलते द्विगुण पानी शेष रह जाय तब उसे कपड़े से छान कर स्थिर होने के लिये रख देवें । इससे उसकी मैल प्रभति नीचे बैठ जायगी। तदुपरांत ऊपर का तरल भाग लेकर पुनः क्वथित करें । जब अवलेह की भाँति गाढ़ी चाशनी हो जाय, तब अग्नि से उतार कर ठंढा होने के लिये रख देवें । ठंढा होने पर इसे चीनी के बर्तन में सुरक्षित रखें।
नोट-वाटर-बाथ पर पकाने से सत्व के जलने का डर नहीं रहता।
गुण प्रयोग-यह पाचक, चुधाजनक और कृमिघ्न है तथा श्वास एवं कास को दूर
मात्र-१ मा० तक। कंटकारी-तैल-कटेरी के पके फल लेकर चीर कर दो-दो टुकड़े कर लेवें। इन टुकड़ों को एक खुले मुंह की बोतल में डालकर, उसमें इतना तिल-तैल डालें जिसमें वे फल डूब जाँय । फिर बोतल का मुंह बंद करके उसे ४० दिन धूप में रखें। इसके बाद तेल को साफ करें।
गुण प्रयोग-शिरःशूल, अविभेदक, पीनस, अपस्मार और योषापस्मार रोग में यह तेल थोड़ा थोड़ा नाक में सुड़कें और संधिशूल, अंगमर्द एव सुस्ती के लिये शरीर पर इसका अभ्यंग करें। __ अन्य विधि-कंडियारी के समग्र चुप को कूट कर रस निकालें । यह रस एक भाग, दो भाग तिल-तैल में मिलाकर लोहे की कड़ाही में डालकर चूल्हे पर चढ़ायें। कढ़ाई के नीचे मध्यम अग्नि जलावें । जब रस जलकर तैल-मात्र शेष रह जाय, तब कढ़ाई को भाग से पृथक करें। ठंडा होने पर तेल को छानकर शीशी में सुरक्षित रखें।
गुण, प्रयोग-इसके अभ्यंग से संधियों का शूल सप्ताह वा पक्ष के भीतर दूर हो जाता है ।
कण्टकारी द्वारा धातु मारण कटेरी के विविध अंगोपांगों से सोना, चांदी, प्रभृति अनेक धातुओं की उत्तम भस्में प्रस्तुत होती हैं । सफेद कटेरी की एक विधि ऐसी है, जिससे चाँदी की सालिमुल हरूफ एवं निरुत्थ भस्म तैयार होती है। इसी प्रकार की अन्य अनेक परीक्षित विधियाँ और हैं, जिसका सविस्तारोल्लेख उन-उन धातुओं के अन्तर्गत किया गया है। अस्तु, वहां देखें । यहांपर भी दो-एक विधि का उल्लेख किया जाता है
(१) मल्ल भस्म विधि-कटेरी के समग्र क्षपों को जलाकर २ सेर राख प्राप्त करे। फिर उसमें से १ सेर राख किसी मिट्टी के बरतन में दबाकर रखें और उसपर १ तोला सफेद संखिया की समूची डली रखें और उसके ऊपर शेष अर्द्ध सेर राख भी खूब जमाकर रखें, पुनः बरतम को चूल्हे पर रखकर नीचे मन्द अग्नि जलायें, जब राख ऊपर तक गरम. होजाय, तब मन की जगह सलाई प्रविष्ट कर देखें, जव मल नरम होकर
करता है।