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कटेरी
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कटेरी
सुश्रुत-अलस (खरवात) रोग में कण्टकारी६ कटेरो के चतुर्गुण रस में पकाकर सिद्ध किया हुश्रा |
सरसों का तेल सेवन करने से अलस रोग प्रशमित होता है । यथा"सिद्धरसे कण्टका- स्तैलं वा सार्षपं हितम्"
(चि० २० अ०) (२) श्वास में कण्ट कारी-श्रामल की प्रमाण कंटकारी का कल्क और उसका आधा हींगइसमें शहद मिलाकर सेवन करने से प्रवल श्वास भी तीन दिन में प्रशमित होता है । यथा"निदिग्धकाश्चामलक प्रमाणम् । हिङ्गवर्द्ध युक्तां मधुना सुयुक्ताम् । लिहेन्नरः श्वासनिपीड़ितोहि, श्वासं जयत्येव वलात् यहेण"।
(उ० ५१ अ.) (३) वाताभिष्यन्द में कंटकारी-वातज अभियदंरोग (आँखाना) में कटेरी की जड़ को बकरी के दूध में पकाकर ठंडा होने देवें । सुहाता गर्म रहते इस दूध से नेत्र सेचन करें। यथा"कण्टकार्याश्च मूलेषु सुखोष्णं सेचने हितम्"
(उ० प्र०) (४)शकुनी ग्रह प्रतिषेधार्थ कण्टकरीशकुनीग्रह प्रतिषेधार्थ शिशु को कण्टकारीमूल धारण करावें । ( उ० ३० अ०)
(५) कास में कण्टकारी द्विगुण कंटकारी के रस में पकाया हुश्रा घी पीने से कास एवं स्वर भेदादि रोग प्रशमित होते हैं । यथा"सम्यग्विपक्वं द्विगुणेन सर्पिः । निदिग्धिकायाः स्वरसेन चैतत् । श्वासाग्निसाद स्वरभेदभिनान् । निहन्त्युदीर्णानपि पञ्चकासान्" ।
(उ० ५२ अ.) (६) मूत्रदोष हरणार्थ कण्टकारी-कटेरी का स्वरस अथवा कल्क सेवन करने से मूत्रदोष (कृच्छु त्वादि) निवृत्त होता है । यथा'निदिग्धिकायाः स्वरसं पिवेत् कुड़वसंमितम् । मूत्रदोषहरं कल्क मथवा क्षौद्रसंयुतम्”
(उ०५८ अ.)
चक्रदत्त-(१) कास में कण्टकारी-कटेरी के काढ़ों में पीपल का चूर्ण मिलाकर पियें। पह सभी प्रकार कासनाशक है।
(२) मूत्रकृच्छ में कण्टकारी-कटेरीका रस शहद मिलाकर पीनेसे मूत्रकृच्छु रोग नष्ट होता है। यथा"निदिग्धिकारसो वापि सक्षौद्रः कृच्छ्रनाशनः"
(मूत्रकृच्छ्र, चि.) (३)मूत्राघातरोगों कण्टकारी-कण्टकारी स्वरस को वस्त्र पूत कर पीने से, मूत्ररोध प्रशमित होजाता है। यथा"निदिग्धिकायाः स्वरसं पिवेद्वस्त्रान्तरस्नु तम्"
(मूत्राघात वि०) नोट-मूत्रकारिणी होने से कटेरी उभय रोगों में प्रयोज्य है। वङ्गसेन-शिशु के चिरकारी कास में व्याघ्रीकुसुम-केसर-कटेरी के फूल के केसर का चूर्ण शहद के साथ चटाने से शिशुओं का चिरकारी कास रोग नाश होता है । यथा"व्याघीकुसुम सञ्जातं केसरैरवलेहिकाम् । जग्ध्वाऽपि चिरजं जातं शिशोःकासं व्यपोहति।"
(वालरोगाधिकार) नोट-उपयुक्त प्रयोग केवल शब्दभेद से भाव प्रकाश में भी पाया है।
वक्तव्य चरक ने कराठ्य,हिक्कानिग्रहण,कासहर, शोथ हर, शीत प्रशमन और अङ्गमईप्रशमन वर्ग में कण्टकारी का पाठ दिया है (सू० ४ अ.)। जिसके सेवन करने से कण्ठ स्वर की वृद्धि होती है एवं जो कंठ के लिये हितकर होता है, उसे कण्ठ्य कहते हैं। इस लिये स्वर भेद में कएकारी प्रयोजित होती है। शीत प्रशमन होने से यह सन्निपात ज्वर में हित कर होती है। अङ्गमईप्रशमनार्थ वात और ज्वर में इसका प्रयोग होता है। सुश्रु त ने वृहत्यादि वर्ग में कण्टकारी का पाठ दिया है (सू० ३८ प्र0)। श्वेत कंटकारीको भाव प्रकाशकार ने "गर्भकारिणी" संज्ञा से